Saturday, November 28, 2009

कृतज्ञता पुष्प


इतना सारा आनंद
इतनी सारी प्रसन्नता
धूप की अनुपस्थिति में भी
आतंरिक उष्मा की गुनगुनाहट

खोल कर देह का द्वार
दूर तक
अपना विस्तार देखता, महसूसता
एक निर्बाध मुक्ति के स्वर में लीन
आज फिर
भेजता हूँ कृतज्ञता पुष्प
तुम्हारे नाम
ओ सृष्टा
मुझे बनाने, अपनाने
और अपने रूप का परिचय देकर
मेरी 'मैं' की कैद से मुझे छुड़ाने वाले

तुम्ही कहो
इस मुक्ति की अनुभूति के क्षण को
सहेजने की चाहत में
छुपा है जो
इसे खो देने का डर
इससे कैसे छुडाओगे मुझे?

Friday, November 27, 2009

ऊँचे शिखर से


आज सुबह कविता के औचित्य पर
प्रश्न लगा कर
बैठ गया में

निकलते रहे 'ट्रक'
उड़ते रहे 'हवाईजहाज'
छुपाते रहे स्वयं को सजे धजे लोग

पाने की आप धापी में
एक पल को
जब
खो बैठे सारे लोग अपना आप

ऊँचे शिखर से
सार का सुनहरा झंडा फहराती
कविता झिलमिलाई
दूर से ही ना जाने कैसे
मेरे कान में फुसफुसाई

"मैं सबको जोड़ने वाला
सृजनशील, समन्वित सूत्र हूँ
मैं अर्थपूर्ण रस की धारा
मेरे औचित्य पर प्रश्न लगा कर
तुम नहीं छू सकोगे


अशोक व्यास
सुबह ५ बज कर ४ मिनट
शुक्रवार, नवम्बर २७, ०९
न्यू योर्क, अमेरिका
गंगा की धारा."

Thursday, November 26, 2009

एक आकारहीन अस्तित्त्व


शब्द नहीं
गंगाजल में भीगा
रुमाल है माँ का
पोंछ कर अपना माथा
तरो ताज़ा कर रहा अपना चेहरा

हो रहा तैयार
नए दिन का स्वागत करने

शब्द नहीं
मुस्कान है आसमान की
मुझ पर अपनी छाप छोडती
गुदगुदा कर
मुक्त करती मुझे
मेरी क्षुद्र चिंताओं से

शब्द नहीं
साकार रूप है सपने का
आश्वस्ति गहरी
संबल शाश्वत

झरना उत्साह का
बहता है जो भीतर मेरे
शब्द स्पर्श से

कहाँ छुप कर
प्रतीक्षा करता था
मेरे भीतर ये
शब्द के आत्मीय स्पर्श की

शब्द मिलते हैं
रात्रि के उस छोर पर
भोर को खींच खींच कर
मेरे पास लाते

सुबह की अगवानी में
मुझे साथ रखते हैं शब्द

और इस तरह
खुल जाती है
एक पटरी
जिस पर चल पार करता हूँ
दिन सारा

पार दिन के रात ही होती अगर
तो क्यों करना था पार इसे

रात और दिन के बीच
अपने अनदेखे स्थलों तक
यात्रा करता हूँ में

कई संदर्भो के रंग
सजा देते हैं
हर दिन को

जिनमें उलझ कर
फिर अपना चिर मुक्त चेहरा ढूंढता
लौट आता शब्दों के पास

शब्द धरती हैं
शब्द आकाश हैं
शब्द क्षितिज भी हैं

शब्द अपने आकार में
सहेजे रखते हैं
एक आकारहीन अस्तित्त्व

जो देता है अवकाश मुझे
इस भरोसे के साथ
कि मेरी पहुँच में है 'विस्तार अपार'

एक के बाद एक
सीढ़ी पर चढ़ना नहीं

पहाड़ पर
हर कदम
अपने लिए नयी सीढ़ी बनाता है

अनिश्चय के बीच
ना जाने कैसे
शब्द अदृश्य रूप में
हाथ पकड़ कर मेरा
मुझे एक नयी सीढ़ी गढ़ना सिखाते हैं

तो अब तक जो कुछ हुआ
वह नहीं है पर्याप्त

होने को है बहुत कुछ शेष

जगा कर यह आस्था

शब्द करते हैं आव्हान

'देखो दूर तक
देखो ऊंचाई से
देखो उड़ान भरते पक्षी की तरह

देखो क्या कुछ अवांछित उठा लाये हो तुम
साथ अपने

देखो मुक्ति धरी है तुम्हारी हथेली पर
देखो कितनी नदियाँ हैं
तुम्हारे हाथ की रेखाओं में

नदियाँ जो बह रही हैं
हाथ की रेखाओं में

गंतव्य उनका
सागर है जो

उस असीम सागर का
क्या सम्बन्ध है शब्दों से


शब्द शायद सब कुछ जानते हैं
पर मुझे थोड़ा थोड़ा बताते हैं
इस तरह मेरे लिए हर दिन
नयेपन का नया स्वाद बचाते हैं

अशोक व्यास
गुरुवार, नवम्बर २६, ०९
न्यू योर्क, अमेरिका
सुबह बज कर ४५ मिनट

Wednesday, November 25, 2009

किरणों की छम छम


यह क्या है
नृत्य करता सा भीतर
जैसे जल की सतह पर तैरता हंस,

जैसे किरणों की छम छम से
स्वच्छा अंगड़ाई ले
खिल जाए धरती,

जैसे उमड़ आए अनायास
आनंद की बरसात,
जैसे आश्वस्ति धर दे
इस छोर से उस छोर तक कोई,

जैसे बह आए
रोम-रोम से निर्मल प्रेम
और जगमगाए श्रद्धा
कि
शाश्वत है प्रवाह इस प्रेम का


अशोक व्यास
ब्लॉग पर अपलोड करने का समय
न्यू योर्क में नोव २५ सुबह बज कर ३३ मिनट

(पंक्तियाँ उतारी गयीं, कल बैंक में काउंटर तक पहुँचने की
प्रतीक्षा पंक्ति में, जब मन मुझे छोड़ कर कहीं और विचरण करने लगा
अपने आप)

आश्वासन उसके साथ का


सुबह, ताजगी, शान्ति, प्रसन्नता
साँसें
माधुर्य
प्रेम
अपनापन
सम्भावना दबाव रहित

अंतस में
उठता है
कृतज्ञता का आलाप

संशय नहीं
अकुलाहट नहीं
तैय्यारी है
स्वागत करने की

स्वागत सबका

पर खास तौर पर उसका
जिसके आने से, जिसके होने से
मैं पूरी तरह 'मैं' हो पाता हूँ

आश्वासन उसके साथ का
घुला हुआ है
सुबह की हवा मे,
सुबह के साथ आए हर क्षण में
बज रहा है संगीत उसका


कविता नहीं
अपने होने की दशा और दिशा देखता
मगन हूँ मैं
अपने होने से परे होने में

अशोक व्यास
बुधवार, नवम्बर २५, ०९
न्यू योर्क, अमेरिका
सुबह बज कर २४ मिनट

Tuesday, November 24, 2009

कैसे सम्भव हो


यहाँ तक पहुँच कर
जब जब मुड कर देखा है
सुंदर लगा है रास्ता

जैसे किसी ने अपनी गोद में उठा कर
करवा
दी हों पार
सारी की सारी चढ़ाइयाँ

फिर हर कदम बनने लगता है प्रार्थना
हर साँस सुनाने लगती है
कृतज्ञता के गीत

तुम सर्वत्र हो अगर
सर्वकालिक हो अगर
सर्वशक्तिमान हो अगर
और मुझसे अटूट सम्बन्ध भी है तुम्हारा

तो फिर
कभी कभी ऐसा क्यों लगता है
कि हो गया हूँ मैं बेसहारा

किसी किसी क्षण एकाकी हो जाता इतना
कि उस क्षण छू नहीं पाती तुम्हारी अनुभूति की धारा

और इतना असहाय भी लगता है अपना आप
की बहुमूल्य जीवन लगने लगता जैसे कोई श्राप

कैसे सम्भव हो
तुम्हारा सतत जाग्रत साहचर्य

कैसे बने हर साँस
नित्य तुम्हारा गुणगान

कैसे दिखाई दे हर मानव मे
तुम्हारी छवि

कैसे हर घटना मे महसूस कर पाऊँ
कृपा तुम्हारी

एक बार यह बात बता देना
गिरिधारी
जय श्री कृष्ण

अशोक व्यास
नवम्बर २४, ०९
नुयोर्क, अमेरिका
सुबह बज कर ११ मिनट

Monday, November 23, 2009

ना जाने क्यों


अनिश्चय के बीच
समय को आकार दे
स्पष्टता की सीढियां बनाने
अब तक
तुम्हारी ओर देखता हूँ

माँ जब जब
बच्चे को आसमान में
उछालती है
सजग रहती है
अपनी बाँहों में
थाम लेने

ना जाने क्यों
लगता है
तुम हो सजग
मेरे पथ का मेरे पहुंचने से पहले
निर्माण करती हुई

अब धीरे धीरे
पहले से अधिक
दृढ़ हो रही है मान्यता कि

मैं नहीं, तुम ही तुम
करती हो सब कुछ
मेरे लिए, मेरे द्वारा भी

ओर इस बोध कि निश्चिंत छाया में
देख कर
कृतज्ञता से
तुम्हारे व्योम से रूप को

भेजता हूँ
सारे जगत को
प्रेम के साथ
कल्याण की प्रार्थना
ताज़ी ताज़ी इस क्षण


अशोक व्यास
सोमवार, नवम्बर २३, ०९ सुबह ६ बज कर ५८ मिनट
नुयोर्क, अमेरिका



Sunday, November 22, 2009

नित्य नूतनता क़ी प्यास




इस बार दूर से साथ चलती रही है कविता
ये जताते हुए
कि किसी के प्यार से बतियाने पर
बहुत ज्यादा न झुकना

किसी क़ी नाराज़गी पर बहुत ज्यादा
न अकड़ना

अगर बहुत अधिक झुके तो मिट जाओगे
अगर बहुत अधिक अकड़े तो टूट जाओगे

झुकने और अकड़ने में
संतुलन सिखाती कविता के चेहरे पर
सौंदर्य रस का आभाव देख कर
मेरी आँखों में उभरे सवाल पर
कविता ने कहा
"फ्रीज़ में रखे विचारों क़ी तरह
जब तुम मुझे रचने से पहले रचा चुके होते हो
मुझे अभाव लगता है
ताज़ा ताज़ा रचनात्मकता क़ी महक का

देखो
मैं चाहती हूँ उस सत्य क़ी तलाश पर निकलना
जो प्रकट नहीं हुआ अब तक
और अगर हो गया तो उस तरह नहीं
जैसे मेरे रूप में
अवतरित होने को सहमत हो जाता है वह

मुझमें नित्य नूतनता क़ी प्यास है
शायद इसीलिए विधाता मेरे इतने पास है
जब जब वो कुछ बताना चाहता है
मेरा रूप लेकर आता है
पर उसे अपना रूप देने के लिए
मुझे भी तो खुला होना चाहिए

सुनो, तुम मुझे अपने छोटे छोटे
सन्दर्भों में घसीट कर
अनंत के साहचर्य से वंचित कर देते हो ना कई बार
वह भी ठीक है
क्योंकि अपने संदर्भो से मुक्त होकर ही
तुम शुद्ध रूप में
कर सकते हो मेरी सहभागिता
उसका स्वागत करने में
जो शाश्वत सृष्टा है

भूल ना जाना
मैं और तुम
उस एक के संकेत बटोरने के लिए
साथ साथ आए थे
जो 'एक' है
और 'अनेक' होते हुए भी
'एक' रहता है
हम सुनना चाहते हैं
वो हमसे क्या कहता है

उसे सुनने
और सुने हुए को सहेजने के लिए ही
है यह मैत्री हमारी

चाहे झुको
चाहे अकड़ो
स्मरण रहे
दोनों अवस्थाओं मैं
शक्ति 'एक' उसी क़ी है
जो सम्भव करती है
दोनों क्रियाएं'


अशोक व्यास
रविवार, नवम्बर २२, ०९
सुबह ७ बज कर ९ मिनट
नुयोर्क, अमेरिका



Saturday, November 21, 2009

बोध अनंत का


अनुबंध जो होता है
अपने साथ
उसको लेकर
बन सकता है
पुल समुन्दर पर

उसके आधार पर
खड़ा हो सकता है महल जीवन का

आत्म-अनुबंध की जड़ों में
सींचा जाता है जब
समर्पण नदी का जल

उर्वरा भूमि मन की
करती है याद
सत्य समर्पित ऋषियों की साधना

घुल जाता है
बोध अनंत का पवन में

विराट की अंगड़ाई से
टूट जाता हर संशय

मौन
आनंद
आस्था
अतुलित प्रेम
मंगल कामनाएं

सम्भव हो जाता
दूर दूर तक देख पाना
वहाँ से परे भी
जहाँ
पहले यूँ लगता था
कि ख़त्म हो रहे हैं रास्ते

अशोक व्यास
शुक्रवार, नवम्बर २०, ०९
न्यू योर्क, सुबह ३:५८ पर
अमेरिका

Friday, November 20, 2009

इस भँवर के पार




तत्पर हूँ
दिन का स्वागत करने मन से
पर तन में अब भी
भरा है प्रमाद



टप-टप, टप-टप
गूँज रहा है
बूंदों का संगीत

बरसती रही है बरखा
देर रात से



हथेली में
संभावनाओं का सूरज है
या बुलबुला कोई

पता लगाने
समय की देहरी पर
लेकर जाना है
अपने आप को


वह जिसे पूर्णता मानते हैं हम
क्या वह भी एक छलावा है?

यदि सत्य है तो
क्यों फिसल जाता है
परिपूर्ण होने का बोध

जीवन क्या सहेजने का नाम है
सत्य को सहेजो
पूर्णता को सहेजो
प्यार को सहेजो
सपनो को सहेजो

सारे अनुभवों में सार को सहेजने के लिए
रात दिन चिंतन करने वाला
क्या सहेज कर रख पाता है
अपनी सहजता?


क्या मैं
पूर्ण नहीं हूँ
अपनी सहज अवस्था में

या धीरे धीरे
कुछ न कुछ यत्न- प्रयत्न करते करते
मैं भूल ही गया हूँ
सहज होने का अर्थ



सहज सामिप्य
धीरे धीरे
छूट जाता है कहीं

किसी के भी समीप रहने के लिए
हमें
वह होना होता है
जो हम नहीं हैं

सामिप्य यानि
अपेक्षाओं के तंतु
अपेक्षा यानि कुछ बुनावट, कुछ बनावट

अपेक्षाओं की ताल से
अपने होने की ताल मिलाते मिलाते
हम जो होते हैं
क्या वह सत्य है?


कहीं ऐसा तो नहीं कि
होने की उधेड़बुन में
हम परे चले आते हैं
सत्य से

और फिर ढूंढते हैं
कैसे फिर से वह हो जाएँ
जो तब थे
जब कुछ भी ना हुए थे



लगता है मेरी उलझन पर
हँसता है
कोई एक चिर मुक्त,
उसकी हँसी में अपनी हँसी मिला कर
सहज ही
निकल आता हूँ
इस भँवर के पार
जिसमें नदी नहीं
गोल गोल चक्कर ही
साथी होते हूँ
मेरी अनुभव यात्रा के


अशोक व्यास
शुक्रवार, नवम्बर १९, ०९
नुयोर्क, अमेरिका
सुबह पाँच बज कर ३० मिनट

Thursday, November 19, 2009

कहा सब कुछ अपने आप से




झुंझला कर कह देना था
सूरज को
ये क्या अभी तो चढ़े हुए थे
अब ढलने लगे
इतनी प्रखर थी धूप जो
कहाँ भेज दिया उसे
और क्यों दे दी अनुमति बादलों को
की ढक लें तुम्हें

उकता कर कह देना था
हवा को
अभी कुछ देर पहले तो
साथ लाई थीं
महक मनमोहन वाली
और अब उठा लाई हो
दम तोड़ती कामनाओं का विलाप

आँख मिला कर कह देना था
समय को
देखो ऐसे नहीं चलेगा
की जब चाहो बहलाओ
जब चाहो नचाओ
जब चाहो बिठा कर
शिखर पर गुदगुदाओ
और फिर पलटो इस तरह
की अपरिचित बन जाओ

पर ना समय को, ना हवा को, ना सूरज को
किसी से कुछ नहीं कहा

कहा सब कुछ अपने आप से

और अपनी कहा-सुनी लेकर
प्रविष्ट जब परम मौन में हुआ

सब कुछ मधुर, समन्वित और सुंदर हुआ

ना झुंझलाहट, ना उकताहट, ना शिकायत
बस एक निश्छल प्रेम नदी की कलकल का स्वर रहा

कान्ति करुणा की घोल कर मेरे अस्तित्त्व में
मुस्कुराता रहा विराट


अशोक व्यास
नवम्बर १८, ०९
न्यू योर्क, अमेरिका
सुबह ६ बज कर ४० मिनट

Wednesday, November 18, 2009

बढ़ जाता है विस्मय



भागते समय की सांसों में
कैसे सुरभित होता है
शाश्वत
तुम्हारे समीप,
विस्मित होकर
शुद्ध सौंदर्य को देख
जब लौटता हूँ
अपने पास
बढ़ जाता है विस्मय
यह देख कर कि
सौरभ शाश्वत की
हो रही महसूस
अपने आस पास भी

ये जादू सा
तुम्हारा है
या मेरा


लौटने को था
पर
बुलावा क्षितिज का
नहीं कर पाया अनसुना
चलते चलते
जान लिया

भ्रम ही है हमारा
कि आसमान से मिल जाती है
धरती कहीं

अब फिर एक बार
हर नयी पहचान में
दिखाई दे रहे हो तुम
यूँ कि
लगता है
हर चीज़ को पहचान मिली है
तुम से ही
या शायद ये हो
कि तुम्हें पहचानने के बाद
जो कुछ नया होता है
उस पर
छाप रहती है
तुम्हारी आशीष की

इस पल
अपने ह्रदय में
जो शान्ति है
उसका चित्र शब्दों तक पहुँचाने
बैठे बैठे
और कुछ हो ना हो
गहरा रही है
यह अनाम शीतलता
अहा!
इस मौन में
ओस की बूँद सा
उतर कर बिछ सा गया है
जो ह्रदय में,
क्या ये तुम्हारी
दृष्टि के वात्सल्यमयी आकाश का
ही उपहार है

शायद इसी तरह
बांटते हो
तुम अपने आप को
पूरी उदारता से

बढ़ाते हो
शान्ति, सौंदर्य, श्रद्धा
अनिर्वचनीय आनंद,


आतंरिक उल्लास
से परिपूर्ण

करता हूँ विचार

जैसे तुमने दे दिया है मुझे
अपना आप

क्या मैं भी
कर सकता हूँ अर्पित
स्वयं को
इस विराट सागर में
जो परिचय है तुम्हारा

तुम्हारे असीम वैभव पर
अब भी
अचरज है

तुम्हारी करुणा में
अब भी भीगा भीगा हूँ

ऊँचे शिखर पर
अपना आत्म-दीप जला कर
कर रहा हूँ आरती

और मुस्कुरा रहा है
मेरी हृदय पीठ में
विराजित देव

यह दुर्लभ मौन
यह अलौकिक क्षण
यह सुंदर तन्मयता
यह चिर विश्रांति की छाँव
अब
मेरे रोम रोम से
झर रही जो
निश्छल प्रसन्नता की कांति
यह कविता से भी परे की सी है

कविता
वह आंख है
जो इस अद्वितीय अनुभूति को
सहेजती है
सहज ही

और सौंप देती है
मुझे मेरी दौलत

इस तरह
अतीन्द्रिय का
इन्द्रियों से परिचय करवाती
है कविता

अशोक व्यास
नवम्बर १८, ०९ सुबह ८ बज कर ३२ मिनट पर
(समर्पित- विश्वयोगी विश्वमजी महाराज की सन्निधि को- उनकी वेबसाइट www.viswaguru.com)

Tuesday, November 17, 2009

आवश्यक और अनावश्यक क्या है





कितना कुछ अनावश्यक
कर
लिया है जमा
अपने आस-पास
सोच कर घबराने से पहले
इस आश्वस्ति से
हो गया प्रसन्न
कि सुबह
लेकर आती है
नयी दृष्टि का उपहार
चीर कर अनावश्यक
देख सकता हूँ आवश्यक की ओर
अब भी
और
प्रसन्न इस बात पर भी कि
देर से सही
हुई तो सही
आवश्यक कि पहचान मुझे

आवश्यक और अनावश्यक क्या है
इसको तय करने वाली
स्थूल वस्तुएं नहीं
उनके साथ हमारा सम्बन्ध होता है

जीवन सम्बंधित होने का नाम है
सम्बंधित हो पाना
एक उपहार है
एक वरदान है

आवश्यक ये है
कि हम इस उपहार का
उपयोग ऐसे करें
कि जीवन खो ना जाए

मानो या न मानो
सम्बन्ध तो सूक्ष्म ही है
जितना दिखता है
उससे कहीं अधिक होता है

होता है उनके लिए
जो इसे महसूस कर पायें

महसूस कर पाते हैं वे
जो आवश्यक पर दृष्टि बनाये रख पाते हैं

आवश्यक जीवन है

अपनी इच्छाओं का चश्मा लगा कर
या
इर्ष्या का लेप कर
अक्सर हम
किसी एक कामना के पूरा होने को
जीवन से बड़ा मान लेते हैं

अपनी सांसों में धरे
अनंत सौंदर्य को नकारते हैं

अपने भीतर उतरे
सीमारहित आनंद को अनदेखा कर

अटका देते हैं
अपने अस्तित्व का बोध
किसी एक चाहत के साथ

एक के बाद
दूसरी चाहत

दूसरी के बाद तीसरी

चाहतों की श्रंखला में उलझे
हम बार बार
स्वयं पर
बंदी होने का संस्कार पक्का करते जाते हैं

बस फिर यूँ होता है
रोते हैं
कसमसाते हैं
व्यथा उपजाते हैं

हर मौसम का बुलावा
अनसुना कर जाते हैं



ये मान कर जीते हैं
मुक्ति तो छल है

बंधन को सच्चा मान कर जीते हैं

बंधते जाने के नए नए तरीके बनाते हैं

कभी अहंकार को अपना सर्वस्व बना
कर बाँध जाते हैं

कभी सम्मान की प्यास में छटपटाते हैं

बार बार अपने को विवश करने वाली
परिस्थितियों में घिरा पाते हैं

क्यों ऐसा होता है
हम असीम आनंद को छोड़ कर
शोक में घिरे रहने को सहज पाते हैं

आज फिर एक बार
जब
टटोल कर देखने बैठा अपनी ज़मीन
मूल का स्पर्श करना
आसान नहीं रहा
ऐसा लगता है


अपने चिर मुक्त होने का बोध
स्मरण साथ रखते हुए
कर पाऊँ जगत व्यवहार
बात इतनी सी
याद रख पाने के लिए
पुकार रहा हूँ उसे
जो
परम आवश्यक है
हमेशा

अशोक व्यास
नवम्बर १७, ०९
न्यू योर्क, अमेरिका
सुबह ६ बज कर ४० मिनट

बात इतनी si

Monday, November 16, 2009

अपने खो जाने वाली बात




चलते चलते रुक कर
फिर एक बार
सुनिश्चित करते हुए दिशा
जान गया जब
कि भटक गया है वह

घिर गया डर में
एक तो खो जाने का डर
और दूसरा ये डर
कि यहाँ पहुँच कर
किसी को बता भी नहीं सकता
कि वह खोया हुआ है


पूछना जरूरी सही
संकोच रहता है पूछने में

अच्छा नहीं लगता
कि कोई ओर भी
ये जान ले
कि हम भटके हुए हैं



एक और बात ये
कि सवाल पूछने से पहले
जरूरी लगता है
कि जहाँ तक पहुंचे हैं
उस पहुँच को सही ठहराएँ

अपनी यात्रा को
छुपाते हुए
हम नकार रहे होते हैं
अपने रास्ते को


बात सीधी नहीं
घुमावदार है
रास्ते कि तरह

बात को कहाँ पहुंचना है
इसके बारे में
मैं पूछता हूँ
बात से ही

जैसे कि जीवन का पता पूछता हूँ
हमेशा जीवन से ही


रास्ता कभी कभी
एक बात बन जाता है

एक बात वो है
जो आंख खोलते वक्त कोई
हमारे हाथ मे थमाता है

एक बात ये
जो रास्ते के साथ बदलती जाती है

और हम कसमसाते रहते हैं
क्यों बदल गयी बात

मैं कविता नहीं लिखता
अपने आप से बात करता हूँ

ऐसे ही जैसे कोई किसी ओर से बात करे

ये जाने बिना कि क्या प्रतिक्रिया होगी

मुझमें जो यह 'एक अन्य' है
साथ साथ होते हुए भी
अपना नयापन बनाये रखता हुआ

इस 'एक अन्य' कि दृष्टि से
कई कई बार
नयी नयी लगी है सुबह
कई बार यूँ लगा जैसे
रास्ते पर किसी ने सौन्दर्य उंडेल दिया है अचानक

मेरे अन्दर ये जो
दो दृष्टियाँ हैं
कविता इनके बीच पुल बनते हुए
मुझे जोडती है

तो क्या कविता मेरे लिए योग है

काव्य योग
साँसों के साथ विरासत मे मिला है हमें

ये ऐसा धन
जो खर्च करने से बढ़ता है

इसके खर्च होते होते
फैलता जाता है
हमारा संसार

मैं कविता नहीं लिखता
विस्तार का आव्हान करता हूँ

सागर से ही कहता हूँ
अपने खो जाने वाली बात

वो जब सुन कर मेरी उहा-पोह
'हुंकार' भर दे देता है
संकेत कि सुन लिया है
उसने मुझे

ना जाने कैसे
अचानक खुल जाती है
रास्ते कि पहचान

कविता मेरे लिए
सही दिशा मे
गतिमान होने की स्पष्टता का उपहार
लाती है
माँ है मेरी
मुझे आगे बढ़ता देख कर वात्सल्य से मुस्कुराती है

अशोक व्यास
नवम्बर १६, ०९
सोमवार,
सुबह ६ बज कर ३ मिनट
न्यू योर्क, अमेरिका

Sunday, November 15, 2009

प्यास लेकर विस्तार की


ऐसा होने लगेगा
ये नहीं जानता था
अचानक शाखाओं पर टंगी
नन्ही नन्ही बूंदे
इतनी सुंदर लगेंगी
की उनके लुप्त हो जाने पर भी
होने लगेगा अफ़सोस सा

एकाकी रास्ते पर
जान बूझ कर
चलते चलते
क्यों होता है ऐसा
कि किसी एक क्षण
जकड लेता है
अकेलापन
करने लगता है
वो सवाल
जो अकेले में दिए ही नहीं जा सकते

कविता ने मेरे हाथो से
खींच कर
फेंक दिए
सारे नारे
हटा दिए सब इश्तिहार

अब सत्य के नाम का आवरण भी नहीं
पूरी तरह अनावृत होकर
जब दिखाई दूँगा
में इन अनुसन्धान करने वाली
ताजी किरणों का
क्या इन्हे पता चल जाएगा
मैं आखिर हूँ कौन
और इनकी खोज के बारे मैं
कैसे जानूंगा मैं

हाँफते हाँफते
फिर एक बार
पहुँच कर पहाड़ कि चोटी पर
मैं
आँखों मे भर रहा हूँ
विस्तार

शहर कि गलियों मे
घूमता फिरूंगा
पहचान इस विस्तार कि संजोये
और फिर
जब प्रतिस्पर्धा के
धुँए मे और
प्रतिक्रिया के शोरोगुल मे
मिटने लगेगी
विस्तार कि यह पहचान
आँखों से

फिर से घटने लगेगा
आतंरिक प्रसन्नता का स्तर

और तब
जब बस्ती मे कोई भी
नहीं समझ पायेगा
दुःख मेरा

किसी न किसी तरह
करना ही होगा
मुझे यह पर्वतारोहण


प्यास लेकर विस्तार की
यदि बैठा ही रह गया
तो धीरे धीरे
खो बैठूंगा खुदको भी

अशोक व्यास
नवम्बर १६, ०९
सुबह ७ बज कर २८ मिनट
न्यूयार्क, अमेरिका

Saturday, November 14, 2009

परिभाषा की हर परिधि से परे



टूटन सी एक
दरार सी एक
कहाँ से आ जाती है
चलते चलते
मन के भीतर

एक कराह
एक आह
अपनी सांसों में
पलने लगती है जब

हम सोचते हैं
रास्ता छोड़ कर
सुस्ता लें थोडी देर

सोचते हैं
ये सैलाब भागती गाड़ियों का
टल जाए
कुछ चैन का मौसम हो सड़क पर
तो चलें

और कई बार
सम्भव नहीं होता ठहरना
करना होता है भीतर की टूटन का निस्तार
भीतर ही भीतर

ऐसे क्षण में
जब हम अपने असीम रूप को याद करते हैं
तो वह झूठ लगता है

झूठ और सच के बीच
बहला कर हमें
लगता है
हंस रहा है कोई




क्या हम बने रहें
अपनी कराह के साथ
लेते हुए
कैसेली कसक का स्वाद
या
सच और झूठ की
हमारी समझ से परे
सम्भव है निकलना
नयी दृष्टि के आंगन में
चलते चलते ही

सवालों का सामना करते करते
कभी कभी
होती है
झुंझलाहट
हमारे हिस्से
सिर्फ़ सवाल ही क्यों

सारे समाधान छुपा दिए गए हैं
धर दिए गए हैं परतों के पीछे

सारी दुनिया
एक सवाल है

सवाल ये की 'मैं हूँ कौन?'
और अक्सर ये होता है
जो जो जवाब मिलता है
अधूरा सा लगने लगता है
किसी ना किसी रूप में

क्या मैं बदलता जाता हूँ निरंतर
क्या मैं
परिभाषा की हर परिधि से परे
निकल जाता हूँ बार बार

तो क्या करुँ ऐसे क्षणों मे
जब पहचान की हूक
बैठ जाए आकर
मेरे काँधे पर


पकी पकाई श्रद्धा से
काम नहीं चलता ऐसे नंगे पलों मे
नए सिरे से पकाना होता है
श्रद्धा को

या शायद पकता जब मैं हूँ
तब प्रकट होती है श्रद्धा

लगता है कोई
विशेष सम्बन्ध है
श्रद्धा के साथ मेरा

अशोक व्यास
नवम्बर १४, ०९
न्यू यार्क सुबान ८ बज कर ४३ मिनट

Friday, November 13, 2009

शायद मौन की महिमा से ही मैं हूँ



देर सही
दूर सही
बहते बहते लहरों पर
मिल ही जाएगा किनारा एक दिन

ठीक है शायद यह सोच
एक लकड़ी के लट्ठे के लिए

पर मुझे
यह भी सोचना है
कितनी देर तक
शेष रह पायेगा
यह तन-मन संघात

और यह भी
करना है याद
लहर को नहीं
मुझे तय करनी है
मेरी दिशा

किनारा जो इतना विस्तृत है
इस पर किस खास बिन्दु पर
खुलेगी
मेरी समग्रता मुझ पर
पता इसका भी लगाना है
शेष होने से पहले

अब ना जाने
कैसे उभरता है
चिंतन का यह अनुभूतिपरक बिन्दु
जिसमें गहरायी और ऊँचाई
दोनों आकर मिल जाते मुझमें

इस तरह
की बहना भी ठहराव बन जाता है
ठहरे ठहरे भी
अहसास रहता है गति का
और
यूँ भी लगता है कि
समग्रता खुल रही है मुझ पर
इसी क्षण

इस पूर्णता में पैंठ कर
व्यग्रता से परे
अगाध शान्ति में निमग्न

तन्मय अपने आप में


मौन में ही पराकाष्ठा है शब्द की
महामौन का किनारा ही पा लेना चाहती है
चिंतन-धारा

कविता मौन उपवन से
चुन चुन कर सुरभित पुष्प
बिखेरती है जब

मनाया जाता है उत्सव
मौन की महिमा का
या शायद मेरे होने का

शायद मौन की महिमा से ही मैं हूँ
पर शायद ये भी होता होगा कभी
की मुझसे ही होती हो
महिमा मौन की

शायद भेद कोई नहीं
मौन मैं और मुझमें

काल यह भेद बनाता है
और कविता यह भेद मिटाती है

इस तरह भेद और अभेद के बीच
मेरी जीवन गाथा उभरती जाती है

---

ॐ, जय श्री कृष्ण

अशोक व्यास
नवम्बर १३, ०९
सुबह ५ बज कर ५८ मिनट

Thursday, November 12, 2009

तृप्ति के अनाम घूँट



तो कैसे उतरोगे सतह तक

लहरों को पार कर

चीर कर प्रतिबिम्ब गगन का

कैसे होगा सम्भव
थाह लेना सागर की

नापना गहरायी
उसकी और अपनी
साथ साथ

सम्भावना की झिलमिलाहट
क्या छलावा है

क्या हो ही नहीं सकते वह
हम कभी
जो हम
समझते हैं की हम हैं

क्यों होता है भेद
होने और होने में

एक यह जो अनजाने में
हुआ गया

एक वह जो जान कर भी
ना हुआ गया

अन्तर इन दोनों का
देख देख
पत्ते झड़ते हैं

नंगी शाखाओं पर
क्या लिखा होता है
पत्तों के बिछोह का दर्द

या
वो रूखेपन में
मना रही होती हैं
उत्सव अपनी स्वतंत्रता का?

पत्ते जो झड़ते हैं
फिर आते हैं
फिर हरा भरा होता है पेड़

क्या इसी तरह
कामना के पत्ते
फिर फिर आकर हरा- भरा करते हैं हमें

शायद यहाँ भेद है
मनुष्य और पेड़ में

कामनाओं के झड़ जाने के बाद भी

शाखाएं नंगी नहीं होती जीवन की

वसंत उगता है
पूर्णता का
छा लेता है पूरे अस्तित्व को

तुम्ही कहो
कुछ न चाहने पर भी
यह जो प्यार की बयार बहती है
कहाँ से आती है

किसी का कुछ न होने पर भी
यह जो एक सहज अपनापन है
यह क्या है

और कभी कभी
आनंद का अद्भुत राग जो
बज उठता है
रोम रोम में

कहाँ है इसका उद्गम
कौन है जो
हर बिछोह के बाद भी
तृप्ति के अनाम घूँट पिला कर
तारो-ताज़ा रख सकता है
एक हिस्सा हमारा

और यह हिस्सा
जो विस्मित करता है
जो हमें लेकर
सृजन वन में नए पग धरता है

कभी ऐसा माधुर्य उंडेलता है
की हर पथ वृन्दावन करता है

यह विस्मित करता हिस्सा
संजो कर लाता है
सागर की सतह के स्पर्श की स्मृति

और सहसा प्रतिबिम्बों का सत्कार करते करते भी
सम्पूर्ण सागर का वैभव खुल जाता है हम पर
एकाएक

फिर सवाल ये
अपने इस सौभाग्य को कहाँ धरें कि
सुरक्षित रहे
और सुलभ हो हमारे लिए हमेशा


अशोक व्यास
न्यूयार्क, नवम्बर १२, ०९
सुबह ६:३५ पर


Wednesday, November 11, 2009

बूँद मेरी शाश्वत सखी है



बारिश की बूंदों से
क्या भीग गयी है सुबह
या आंसूं हैं ये रात के
धर गयी है वो
सुबह की देहलीज़ पर

बूँद
किसी किशोरी का अल्हड़पन है
या किसी ऋषि की तपस्या से उमड़ता
मधुर आलिंगन
बूँद क्या
जानती है कि
क्षणभंगु है उसका होना
क्या नष्ट होने का भय नहीं उसको
या धरती में मिल कर भी
अपने को पा लेने की आश्वस्ति है
इस नन्हीं परी में?

मैं बूँद नहीं हूँ
मानता ऐसा हूँ
कि मैं सागर हूँ
मानता ये हूँ
कि मैं मिटने वाला नहीं हूँ
पर जीवन को
अपनी मान्यता के साथ जीने में
बार बार असफल होता हूँ
धरती में मिल कर
अपने स्वरुप को खोते हुए
बूँद कि तरह अपना आप
पा लेने की
आश्वस्ति नहीं मुझमें

बूँद आस्मां से आती है
मैं शायद धरती से आया हूँ
और चाहता ये हूँ
कि अब धरती में नहीं
मिल जाऊं आसमान में

रात-दिन
आसमान तक ले जाती पगडण्डी ढूंढते-ढूढ़ते
जब थक जाता हूँ
कोमल बूँद
मेरे माथे पर उतर कर
करुणा से कहती है
'रास्ता मत ढूंढो
रास्ता बन जाओ
रास्ता होता नहीं
बनता है चलने से
सबका रास्ता अलग अलग होता है
उनके भीतर से निकलता है
मुझे देखो
साथ साथ होते हुए और बूंदों के
आयी तो हूँ मैं
धरती तक
अकेले ही ना'

बूँद एक
बात कह कर अपनी
मिल गयी मुझमें
प्रतिप्रश्न भी नहीं कर सका
कि
'जैसे तुम्हारे लिए
सहज है
धरती पर आना
क्या मेरे लिए भी
सहज है
आसमान तक जाना'

मेरे पास से होकर
धरती तक पहुंचती
एक दूसरी बूँद ने कह दिया
'चलने से होगा'
इस बार हवा ने
भी साथ दिया बूँद का
बोली
'जब दृढ़ निश्चय के साथ चलोगे
चलना तुम्हारा उड़ना हो जाएगा
और आसमान ख़ुद हाथ बढ़ा कर
तुम्हे गोद में उठाएगा'

आसमान तक वो जाएगा
जो आसमान कि गोद में बैठने लायक
बन जाएगा,
ऊंचाई से ऐसा रिश्ता
चलते चलते ही जाग्रत हो पायेगा

बूँद
ना किसी किशोरी का अल्हड़पन है
ना किसी ऋषि का मधुर आलिंगन
बूँद मेरी शाश्वत सखी है
मिट कर भी मिटती नहीं
कभी धरती बन जाती है
कभी मेरी होकर मुझ ही में समाती है


अशोक व्यास
न्यूयार्क सुबह :२४ पर

Tuesday, November 10, 2009

तो क्या चिरमुक्त नहीं हूँ मैं?












घुल-मिल रहा हो
जब अँधेरा, उजाले से
सुबह-सुबह
आश्वस्ति देता है
प्रकृति का यह निश्चय कि
सिमटने वाला अँधेरा ही होगा
और फैलने वाला होगा उजियारा ही

मेरे भीतर भी
होती है रात
आता है दिन
पर निश्चित नहीं है अवधि
कभी कभी रात लम्बी होती है
कभी कभी दिन लंबा होता है

कभी कभी यूँ भी होता है
कि घुला-मिला होता है
अँधेरा उजाले से
और मैं घिर जाता हूँ
एक अनिश्चय में

अनिश्चय के कचोटते क्षणों में
कई बार
जब यूँ लगा है कि
सिकुड़ गयी है
संभावनाओं कि कोठारी
मैंने तुम्हे पुकारा है
या शायद मेरे अश्रुओं में बही है पुकार

और हमेशा
हुआ है
तुम्हारे किसी संकेत, किसी दूत का आगमन
मुझे मुझसे छुड़ाने के लिए

मुक्ति जो देते हो तुम
वो बनी क्यों नहीं रहती
छूट क्यूं जाती है मुझसे
क्यूं फिर से बंदी बन जाता हूँ
क्यों फिर से जकड लेता है अनिश्चय
क्यूं फिर से लौट आता है एक डर

क्या मुक्ति को भी मुझसे चाहिए कुछ
शायद मेरे साथ रह पाने के लिए
शर्त है कुछ मुक्ति कि

हे देने वाले
यदि मुक्ति भी मुझ पर निर्भर है
तो क्या चिरमुक्त नहीं हूँ मैं?

यदि मैं चिर मुक्त हूँ
तो भूल क्यों जाता हूँ यह बात?
समझा!
जब जब मैंने पुकारा है
तुम कहीं और से नहीं
मेरे ही भीतर से आए हो

यदि मेरी पुकार ही प्रकट करती है तुम्हे
तो बड़े तुम हुए या मैं?

क्षमा करना मेरे शाश्वत सखा
तुम हमेशा मुझे वह स्थल दिखाते हो
जहाँ कोई छोटा कोई बड़ा
जहाँ एकपना है
दोपना है ही नहीं
और व्यवहार मे
इस अद्वितीय माधुर्य को भूल
हर बार
मेरे-तुम्हारे, लेन-देन कि खींच तान मे
उलझ कर
वहां पहुँच जाता हूँ मैं
जहाँ सिकुड़ जाती है
सम्भावना कि कोठारी
और मेरे अश्रु पुकारते हैं तुम्हे


जय हो!

अशोक व्यास
6:22am, न्यूयार्क

Monday, November 9, 2009

कविता तो नित्य उत्सव है





अच्छाई और बुराई साथ साथ चलती हैं
कोई भी कार्य
दिन-प्रतिदिन
करते करते
हम कुशल होते हैं उसमें
पर साथ ही
यह डर भी रहता है
कहीं यंत्रवत न हो जाए व्यवहार हमारा

कविता हर दिन
नयी हो
नए दिन के साथ
इसके लिए
कर करके प्रयास
नया होना होता है मुझे
हर दिन
पुराने विचारों, स्थापित धारणाओं को
अलग खिसका कर
अनावृत रूप में
हो लेता हूँ
नयी किरणों के सामने

कभी कभी किरण
मुझसे पुरानी धरोहर मांगती है
देखना चाहती है
मुझे अब तक
सत्य की दिशा के संकेत याद हैं या नहीं
कभी कभी किरण
आश्वस्त हो लेना चाहती है
की शेष नहीं है
मुझ पर
किसी अफ़सोस, किसी अवसाद की धूल
और अगर है तो
शायद अलग तरह से
जारी रहेगा आत्मानुसंधान

किरण चाहती है
मैं बिना किसी लाग-लपेट के
जैसा हूँ
वैसा ही आ पाऊँ सामने उसके
किरण
वहां से मुखरित करती है
कविता
जहाँ मैं पारदर्शी हो जाता हूँ

किरण में सूरज विद्यमान है
किरण के साथ
उतर कर मुझमें
सृजनात्मक आभा को
प्रकट करते है वो ही

मैं सूरज का पथ होते होते
किसी एक अनाम क्षण मैं
जब सूरज हो जाता हूँ स्वयं ही
शब्द उस आलोक की अगवानी में
उत्सव मनाते हैं

कविता क्या
उत्सव की तस्वीर मात्र है?
नहीं नहीं!
कविता तो नित्य उत्सव है
उत्सव सृजनशील गति का
उत्सव सत्य के साथ एक मेक होने की लालसा का

इस उत्सव में
किसी क्षण यूँ भी होता है
की
पा लेता हूँ
स्वयं को
फिर एक बार
9
कविता की मुस्कान लेकर
प्रेममय आभार जागता है
सबके प्रति
न कोई आक्रोश, न असंतोष
बस
एक सुंदर आत्म-तोष

फिर भी ना जाने
जीवन को कवितामय बना देने से
क्यों इतना कतराता हूँ

जैसे माँ से अलग हट कर
चलना चाहता है
बढ़ता हुआ बच्चा
ऐसे ही
मैं भी अपनी पहचान बनाने
दिन की पगडंडियों पर खेलते खेलते
कविता की दृष्टि को
कहीं छुपाता हूँ
और हर दिन के मेले में
खो जाता हूँ



अशोक व्यास
नवम्बर ८, ०९
सुबह ७ बज कर २६ मिनट
न्यूयार्क

Sunday, November 8, 2009

संभावना का नया उजियारा



तो फिर
आ गया नया दिन
हथेली में धर दिया
संभावना का नया उजाला

मुग्ध इसके सौंदर्य पर
इठलाता हुआ
अपने भाग्य पर
बैठा लिखने
आभार पत्र
दिनकर के नाम


आदित्य जी महाराज
नमस्कार
मैं धरती पर रहता हूं
आप आसमान में

आपके होने से मेरा जीवन है
जीवन होने से सब कुछ है

कभी कभी बहुत संकट भी आते हैं
चिताएं घेरती हैं
यह दुःख भी सालता है
की मेरे पास इतना कम
किसी ओर के पास इतना अधिक

पर संकटों, चिंताओं, दुखों के परे
सुख, संतोष, संपन्नता से परे

आधार सारे खेल का
(यदि अपने अनुभवों को खेल कह लूँ)
जीवन ही तो है

जीवन तुमसे है
तुम संभावनों के जनक हो
हर दिन आते हो
हमारी हथेली में
अदभुत उपहार रख जाते हो

कई बार तो अपने आप में खोया
मैं देख ही नहीं पाता की तुमने
सौंप दिया है नया उपहार मुझे

बस लेता हूँ
चल निकलता हूँ
नए अनुभवों, नए सिरे से पुरानी चिंताओं का स्वाद लेने
नए सिरे से पुरानी कसक को सालता
या अपने लिए दिखाई देती दौड़ में फिर एक बार
आंख पर पट्टी बाँध कर भागता

बहुत कम ऐसा होता है
की तुम्हारी तरफ़ देख कर
कृतज्ञता पूर्ण नयनो से देख
कर
धन्यवाद् दूँ तुम्हें

तुमने जो संभावना का नया उजियारा
सौंपा है आज मुझे
इसकी सुन्दरता में
मुझे अपनी सुन्दरता, अपनी आत्मीयता
और अपने होने का गौरव दिखाई दे रहा है

सोचता हूँ
क्या दूँ तुम्हें मैं
जानता हूँ, लेन-देन तुम्हारा तरीका नहीं है
या शायद ले लेते हो तुम
देते देते
अपनी किरणों के द्वारा
और हमें पता ही नहीं चलता

पर इस व्यावहारिक ऊष्मा से परे
तुम्हारी आत्मा के साथ
व्यवहार करने की पात्रता भी
कैसे जाग्रत हो मुझमें?

किरण कहती है
'दग्ध कर दो
कलुष मन का,
मिटा दो संशय
बाँटो उजियारा प्रेम का
बिना किसी अपेक्षा के
तब जानोगे
तुम्हें सूर्य की आत्मा से व्यवहार करने की
आवश्यकता ही नहीं
तुम तो एक- मेक हो
हिरण्यगर्भ के साथ"

अशोक व्यास
नवम्बर ८, ०९
न्यू यार्क
सुबह ७:४३ par

Saturday, November 7, 2009

तुम्हारे होने की यात्रा







सत्य क्या वह है
जो मेरे मानस की उपरी सतह पर
इस क्षण
मेरे लिए दुःख, पीड़ा, आक्रोश और असंतोष का
कारण बनता है

सत्य क्या वह है
जिसे मैं तात्कालिक संदर्भो
में घिर कर देख ही नहीं पाता

सत्य क्या वह है
जो मेरे होने से अर्थ ही नहीं रखता
जिसे मेरी इच्छाओं, मेरे सपनों, मेरी आशा - निराशा से
सरोकार ही नहीं कोई

सत्य तुम कौन हो
क्यों मुझे लगता रहा है
की तुम्हारे बिना जीवन का आधार ही नहीं कोई

पर तुम्हें पहचानना इतना मुश्किल क्यों
तुम तो हर गली पर, हर मोड़ पर परे हो गए लगते हो
मुझसे
जब जब मैं रोया, तड़पा, कसमसाया
किसी बात की कसक लेकर

कहाँ थे तुम
जब जब मुझे लगा
जो कुछ हो रहा है
वह वह तो नहीं जो मैं चाहता था

सुनो तो जरा
बताओ मुझे
ओ सत्य! क्या सिर्फ़ इसीलिए हो तुम
की मुझ पर हँसा करो
और मैं अपनी छटपटाहट लेकर
भागता रहूँ
क्षितिज की ओर


सत्य!
आज कुछ बोलो ना मुझसे
कहो कुछ तो
बताओ अपने बारे में

मुझे भी
बिन देखे
तुम्हारी ओर क्यों है
यह आकर्षण सा
क्यों लगता है
तुम्हारे बिना
अर्थहीन है अस्तित्व मेरा

सत्य, ओ सत्य
आज कर ही दो कृपा
व्यक्त कर दो
अपना आप थोड़ा ही सही



सत्य अब कुछ कहने को है
ऐसा अहसास हुआ
ओर फिर
यह संकेत की
सत्य को सुनने के लिए मुझे चुप होना होगा

चुप होना तो मैंने सीखा ही नहीं
कभी अतीत बोलता हूँ
कभी भविष्य बोलता हूँ
कभी वर्तमान को टटोलता हूँ
मैं तो निरंतर बोलता हूँ

चुप होने के लिए तो
मुझे तीनो कालों से परे जाना होगा
कैसे सम्भव होगा वह मेरी लिए?

सत्य भाई
सुनो
तुम तो बड़े हो
कालातीत हो, सुना है
क्यूँ न तुम ही आकर मिल लेते
मुझसे मेरी सीमाओं में

मिलता तो हूँ
पर तुम पहचानते नहीं मुझको

कैसे बोलने लगा सत्य मुझसे मेरे मौन में
अचरज को अनदेखा कर
बात जारी रखने सत्य से
ईमानदारी के साथ पूछ बैठा में

कैसे हो पहचान तुम्हारी
कहो ना
बताओ तरीका कोई

लगा सत्य मुस्कुराया
कहा
जब तुम पहचान की प्यास से परे
निकल आओगे
तब मुझे पाओगे

कैसे सम्भव है यह
की पहचान की प्यास मिट जाए
मैं तो रात-दिन भागता रहता हूँ
पहचान के लिए

सत्य के संकेत ने कहा
'जब तुम अपने आप में
पूर्णता की अनुभूति कर पाओगे
खोने पाने के क्रम से परे
कर्म के द्वारा नित्य अपने होने का उत्सव मानोगे
जब तुम हानि-लाभ से परे
अपने होने के आनंद में
नित्य रमण कर पाओगे
तब सत्य को निरंतर अपने साथ पाओगे
ओर स्मरण रहे
सत्य शाश्वत है
पर उसे भी अच्छा लगता है
तुम्हारे होने की यात्रा मैं शामिल होना

तब शायद तुम भी समझ पाओगे
की तुम्हारे होने की यात्रा
आरम्भ से अंत तक
सत्य ही सत्य है

अशोक व्यास
नवम्बर ७, ०९
सुबह ७ बज कर १६ मिनट
न्यू यार्क

Friday, November 6, 2009

जिससे बने है जग सुनहरा



बीज बन कर
चल उतर आ गोद में माँ की
जहाँ
टूटन भी पावन और है एक रास्ता विस्तार का

छुप छुपा ले
वो सभी, जिससे खरोंचें पड़ रही हैं
छोड़ अब तक जो हुआ
जो ना हुआ

बस आज इस क्षण जो भी है तू
साथ में उसको सहेजे
चल उतर आ गोद में माँ की

ले कर विश्राम उसकी गोद में
निश्चिंत होकर

माँ की हथेली में ही है
आश्वस्त करता एक वो स्पर्श
की
जिसकी छुअन से
लुप्त भय-चिंता सभी

ना डर खोने से कुछ भी

पा गया वात्सल्य तो
फिर से वही दृष्टि मिलेगी

जिससे बने है जग सुनहरा

फिर नयी ताजी हवा से खेल करता
दौड़ ले तू
सपनों की पगडंडियों पर

याद माँ की साथ रख कर
कसक सी होती नहीं टूटन
सीखने यह बात
जिससे हो मधुर, सुंदर हर एक क्षण


हर एक टूटन हो पावन
बीज बन कर
चल उतर आ गोद में माँ की

जहाँ
टूटन भी पावन और है एक रास्ता विस्तार का




अशोक व्यास
सुबह ५ बज कर १८ मिनट
न्यू यार्क
नवम्बर ६, ०९

Thursday, November 5, 2009

तुम्हारी पूर्णता का प्रमाण



हर क्षण
एक रचनात्मक चुनौती है
मान कर ऐसा
करने लगा प्रार्थना
की इस क्षण को अपना सुन्दरतम दे पाऊँ

और मुस्कुरा गया क्षण
भाव तुम्हारा पर्याप्त है

देखो मैं तो वैसे ही परिपूर्ण हूँ
खेल बस तुम्हारे भाव सजाने का है
रचनात्मकता किसी और के लिए नहीं
बस तुम्हारे लिए ही है

तुम नहीं जानते
मैं जानता हूँ
तुम कालातीत हो

रचनात्मक चुनौती
इस पहचान तक पहुँचने की ही है

मैं देखता हूँ
स्थितियों का नित्य- नूतन समायोजन
बनाता है
पहेलियाँ तुम्हारे लिए

झाँक झाँक कर अपने में
जा सकते हो पार हर बाधा के
बूझ सकते हो हर पहेली

जब जब
स्थिति के दबाव में
तुम अपने भीतर झांकना भूल जाते हो
प्यारे कालातीत
तुम मुझ अकिंचन काल के हाथों
हार जाते हो


काल से बात जारी रखते हुए
पूछ बैठा जब
मुझे हरा कर क्या मिलता है तुम्हे
हँस पड़ा काल

"लो भूल गए तुम
मैं तो लेन- देन से परे हूँ
मेरे लिए हानि लाभ

मैं तो बस हूँ
तुम्हारी सेवा में
तुम्हें करने और होने
का अवकाश देने के लिए

महत्व है बस ये जानने का
की तुम वह हो
जो हमेशा होता है"

3
शब्द जाल कहीं
कोई षडयंत्र तो नहीं किसी का?
यह सब जो सुन रहा हूँ मैं
काल से
कविता के झरोखे में बैठ कर

सत्य है क्या यह सब
या मनगढ़ंत कल्पना है
किससे पूछूं
सचमुच चिंतित था
कैसे पुष्टि करुँ अपने विस्तार की?

पुष्टि सृष्टि है
कह कर मुस्कुराया कोई
तुम भूल जाते हो
अब तक जितना भी जिए हो
उसमें भी
तुम्हारी साँसों से
होती रही है प्रकट
उपस्थिति अनंत की


जीवन की पुष्टि स्वयँ जीवन है

तुम्हारी पूर्णता का प्रमाण
स्वयं तुम ही हो

इसीलिए तो बार बार
आता है तुम्हारे द्वार
अलग अलग रूपों मे यह आग्रह
खेलते हुए रचनात्मक खेल
काल के साथ
याद रख कर
झांको- झांको अपने भीतर


बस यही
एक तरीका है
तुम्हारी जीत का

अशोक व्यास
नवम्बर , ०९
सुबह बज कर ३१ मिनट
न्यू यार्क
(गणेश रूप में मेरे नाम के शब्दों को समायोजित करने की श्रेय वेंकटेश जी को,
उनकी वेबसाइट www.myganesha.in)

Wednesday, November 4, 2009

जो कोलाहल में मौन से जुड़े








एकाकी
बैठ कर
रेत के टीले पर
देखने आया था जब
सूर्योदय
की लालिमा

सब कुछ कितना शांत था
अपने आप में मगन सा
और उस क्षण जब धीरे धीरे
एक एक कतरा प्रखर सूर्य का
उभरता देखा
जैसे धरती के आँचल से

क्षितिज को मिल गयी
दुनिया भर की सुन्दरता

मुग्ध मैं
देखता ही रहा था
अन्धकार से उजियारे तक की
साझी यात्रा हमारी

पर धीरे धीरे नहीं
अब तेज़ी से
ऊपर की ओर
अपने अधिकार का दावा करते
सूरज देवता ज्यों ज्यों
चढ़ते गए ऊपर

दृश्य बदल गया
अब कविता नहीं
गति ही गति देने लगी दिखाई

हर दिन हमें कविता से परे ले जाने
की कोशिश करता है
और हम
किसी तरह मारा-मरी, आपा-धापी में
बचाए रखना चाहते हैं
कविता

कविता वो दृष्टि
जो कोलाहल में मौन से जुड़े
अस्त-व्यस्त जीवन मैं
ढूढ़ ले समन्वय और
चखती-चखाती रहे
रस सतत सौंदर्य का

अशोक व्यास
नवम्बर ४, ०९
न्यू यार्क, सुबह ७:21

Tuesday, November 3, 2009

दृश्य क्या स्वतंत्र हैं हमसे





1
देर तक अटक कर
एक ही स्थान पर
जब देख पाते हैं
निकलने का रास्ता
अक्सर
सोचते हैं
क्यों नहीं देख पाये यह रास्ता
जो इतना समीप था

दृश्य क्या स्वतंत्र हैं हमसे
जब चाहें खुलें
जब चाहें
सामने होते हुए भी
जो जायें अदृश्य


मैं अपने आस- पास के
दृश्यों से नया नया रिश्ता बनाने के
नए नए तरीके ढूंढते हुए
कभी कभी
जब उस बिन्दु तक पहुँचता हूँ
जिससे
सम्बन्ध है हर दृश्य का
तब एकाएक
दृश्य खो जाते हैं
या
शायद खो जाता हूँ मैं ही

खो जाने के बाद
जो शेष रहता है
वो कौन है
वो कैसे रहता है
वो क्यों रहता है

सवालों के साथ
जागता है
मेरा रूप
मेरी पहचान
मेरी इच्छाएं
मेरी चिंताएँ

सवालों से परे
जहाँ छूट जाती है जिज्ञासा
जहाँ नहीं शेष रहता कुछ जानना
वहां मैं भी तो नहीं रहता

मैं रहना चाहता हूँ
सवालों के नए नए समूह बना कर
देखता हूँ
मैं बना हुआ हूँ
इस दृश्य मे
उस दृश्य मे
और छू रहा हूँ
अपने होने को,

इस तरह अपने होने के भाव
का स्पर्श करने के लिए ही
हैं सारी बातें



क्यों इतना सुंदर है
मेरा होना
कैसे इतनी परिपूर्णता का बोध
गुनगुनाता है, नृत्य करता है
मेरी साँसों में

जबकि आज भी
बमों के धमाके
कहीं न कहीं
उगल रहे हैं
जानलेवा लपटें
अभी इस क्षण भी
किसी ने किसी के साथ
अमानवीय व्यवहार किया होगा
क्षण ने कहीं



भाव मेरा यह कि
सुंदर, समन्वित, मधुर हो दृश्य

कोई जादूगर नहीं, न कोई तांत्रिक
पर अब तक श्रद्धा है मुझमें
शब्दों में दृश्य बदलने की
ताक़त है

मुझे रचते हैं
शब्द
जिस तरह
क्या हम संसार को रचने का रास्ता
पूछ नहीं सकते शब्दों से

सम्भव है आए
वह क्षण
जब हम देख पायें एक नया रास्ता
और सोचें
क्यों नहीं देख पाये यह रास्ता
जो इतना समीप था

अशोक व्यास
न्यू यार्क, नवम्बर ३, ०९
सुबह सात बजे


Monday, November 2, 2009

हर क्षण हो त्यौहार





हर दिन नयी सलेट सा
मांगे कुछ उपहार
चलो बाँट दें साथ मिल
दूर दूर तक प्यार



सोये अपने साथ में
जागे अपने साथ
चल मन उसकी बात कर
जिससे है हर बात



धूप सखी आकाश की
फ़िर फ़िर नगर बाज़ार
देखे किस सौगात से
खुश हो मेरा यार


मन में जितनी लहर है
सब का एक ही धाम
सब में सागर की छवि
जब मन हो निष्काम



आनंद आनंद गाइए
कर कर जग के काम
उसका ध्यान लगाइए
जिससे नित आराम

6
मुझमें तुझमें रात दिन
है जिसका संगीत
उसकी लय सुन सहज ही
होवे जग से प्रीत

7
कब कैसे आई यहाँ
बूँद ओस की देख
इसके सुंदर सार से
मिटे रोष की रेख

8
अभी बरसता है अभी
वो आनंद अपार
जिसमें संग संग भीग कर
हर क्षण हो त्यौहार



विस्मित करती है मुझे
उसकी है एक बात
अपना रूप लिखा गया
थाम के मेरा हाथ

अशोक व्यास
न्यू यार्क में प्रातः ६ बज कर ५२ मिनट



Sunday, November 1, 2009

जहाँ से सब कुछ बदल सकते हैं

(सूर्योदय जैसलमेर का - अगस्त २००८)


लो देख लो
सारी धरती
सारा आसमान
और ये सब
नदी, पर्वत, पेड़, मैदान

देख रहे हो
हम वहां हैं
जहाँ से सब कुछ बदल सकते हैं

फिर से व्यवस्थित कर सकते हैं
सब कुछ
विश्वास नहीं होता ना
होने लगेगा
जब व्यवस्था उमडेगी
भीतर से तुम्हारे

जब मूँद कर आंखें
देख पाओगे तुम
ज्यों ज्यों आतंरिक व्यवस्था बदलेगी
दुनिया बाहर कि
बदलती जायेगी अपने आप

तो चलो
बाहर कुछ मत देखो थोडी देर
देखते रहो
भीतर का सागर
भीतर कि लहरें
भीतर कि उथल पुथल
भीतर के संशय
और
स्मृति उसकी
जिससे
सुंदर, आभा वाला
प्रखर सूर्य उदित होकर भीतर
फैला देता है
वह उजाला
जो पुनर्व्यवस्थित करता है
भीतर का संसार ऐसे
कि उजाला भीतर का
बाहर तक आता है
तुम्हारी आँखों, तुम्हारे शब्दों, तुम्हारी साँसों से
लो देख लो
सारी धरती
सारा आसमान
और ये सब
नदी, पर्वत, पेड़, मैदान

देख रहे हो
हम वहां हैं
जहाँ से सब कुछ बदल सकते हैं


अशोक व्यास
नवम्बर १, ०९, न्यू यार्क
सुबह ६:०० बजे




जहाँ से सब कुछ बदल सकते हैं



लो देख लो
सारी धरती
सारा आसमान
और ये सब
नदी, पर्वत, पेड़, मैदान

देख रहे हो
हम वहां हैं
जहाँ से सब कुछ बदल सकते हैं

फिर से व्यवस्थित कर सकते हैं
सब कुछ
विश्वास नहीं होता ना
होने लगेगा
जब व्यवस्था उमडेगी
भीतर से तुम्हारे

जब मूँद कर आंखें
देख पाओगे तुम
ज्यों ज्यों आतंरिक व्यवस्था बदलेगी
दुनिया बाहर कि
बदलती जायेगी अपने आप

तो चलो
बाहर कुछ मत देखो थोडी देर
देखते रहो
भीतर का सागर
भीतर कि लहरें
भीतर कि उथल पुथल
भीतर के संशय
और
स्मृति उसकी
जिससे
सुंदर, आभा वाला
प्रखर सूर्य उदित होकर भीतर
फैला देता है
वह उजाला
जो पुनर्व्यवस्थित करता है
भीतर का संसार ऐसे
कि उजाला भीतर का
बाहर तक आता है
तुम्हारी आँखों, तुम्हारे शब्दों, तुम्हारी साँसों से
लो देख लो
सारी धरती
सारा आसमान
और ये सब
नदी, पर्वत, पेड़, मैदान

देख रहे हो
हम वहां हैं
जहाँ से सब कुछ बदल सकते हैं


अशोक व्यास
नवम्बर १, ०९, न्यू यार्क
सुबह ६:०० बजे


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