Sunday, November 22, 2009

नित्य नूतनता क़ी प्यास




इस बार दूर से साथ चलती रही है कविता
ये जताते हुए
कि किसी के प्यार से बतियाने पर
बहुत ज्यादा न झुकना

किसी क़ी नाराज़गी पर बहुत ज्यादा
न अकड़ना

अगर बहुत अधिक झुके तो मिट जाओगे
अगर बहुत अधिक अकड़े तो टूट जाओगे

झुकने और अकड़ने में
संतुलन सिखाती कविता के चेहरे पर
सौंदर्य रस का आभाव देख कर
मेरी आँखों में उभरे सवाल पर
कविता ने कहा
"फ्रीज़ में रखे विचारों क़ी तरह
जब तुम मुझे रचने से पहले रचा चुके होते हो
मुझे अभाव लगता है
ताज़ा ताज़ा रचनात्मकता क़ी महक का

देखो
मैं चाहती हूँ उस सत्य क़ी तलाश पर निकलना
जो प्रकट नहीं हुआ अब तक
और अगर हो गया तो उस तरह नहीं
जैसे मेरे रूप में
अवतरित होने को सहमत हो जाता है वह

मुझमें नित्य नूतनता क़ी प्यास है
शायद इसीलिए विधाता मेरे इतने पास है
जब जब वो कुछ बताना चाहता है
मेरा रूप लेकर आता है
पर उसे अपना रूप देने के लिए
मुझे भी तो खुला होना चाहिए

सुनो, तुम मुझे अपने छोटे छोटे
सन्दर्भों में घसीट कर
अनंत के साहचर्य से वंचित कर देते हो ना कई बार
वह भी ठीक है
क्योंकि अपने संदर्भो से मुक्त होकर ही
तुम शुद्ध रूप में
कर सकते हो मेरी सहभागिता
उसका स्वागत करने में
जो शाश्वत सृष्टा है

भूल ना जाना
मैं और तुम
उस एक के संकेत बटोरने के लिए
साथ साथ आए थे
जो 'एक' है
और 'अनेक' होते हुए भी
'एक' रहता है
हम सुनना चाहते हैं
वो हमसे क्या कहता है

उसे सुनने
और सुने हुए को सहेजने के लिए ही
है यह मैत्री हमारी

चाहे झुको
चाहे अकड़ो
स्मरण रहे
दोनों अवस्थाओं मैं
शक्ति 'एक' उसी क़ी है
जो सम्भव करती है
दोनों क्रियाएं'


अशोक व्यास
रविवार, नवम्बर २२, ०९
सुबह ७ बज कर ९ मिनट
नुयोर्क, अमेरिका



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