Tuesday, October 25, 2016

पर दादी हम राक्षस तो नहीं हुए न ?



लौट सकता हूँ अपने आप में 
कभी भी 
यह मान कर 
उम्र भर 
बाहर ही बाहर 
घूमता रहा हूँ 

आखिर 
थक हार कर 
विश्राम करने 
घर लौटने की तड़प लिए 
ढूंढने निकला जब 
रास्ता भीतर का 

कितना कुछ बदल गया है 
झूठ मूठ के रास्ते 
इतने सारे बना दिए 
इतने बरसों में 
की सचमुच अपने भीतर लौट पाने की 
सामर्थ्य 
खो गयी लगे है 

और अब 
संसार के मेले में 
जब लगता है एकाकी 

पाने और खोने के खेल से परे 
अपनी पूर्णता की आश्वस्ति भी 
सरक गयी है कहीं 

लो 
इस सब दार्शनिकता के धरातल से 
अलग नहीं हो तुम भी 
साथी हो मेरे 
मानोगे 
अगर बताऊँ 
पास वर्ड मेरे फ़ोन और कंप्यूटर के 
काम नहीं कर रहे 
इसी की बैचेनी है 

किसी के नंबर भी तो याद नहीं 

दादी की कहानियों में 
तोते में जैसे 
किसी राक्षस की जान जुडी होती थी 

डिजिटल तोतों में 
छुपा ली है हमने अपनी अपनी जानें 

पर दादी हम राक्षस तो नहीं हुए न ?


अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका 
२५ अक्टूबर २०१६ 

Wednesday, October 19, 2016

दीप पर्व उजियारे की पुकार है



दीप पर्व उजियारे की पुकार है 
अँधेरा छोड़ कर ही विस्तार है 

ज्ञान में ही जीने का सार है 
दीपावली पावन मंगल श्रृंगार है 

इस बार 
दीपोत्सव कुछ ऐसे मनाएं 
राम का नाम ले 
संकोच के घेरे से बाहर आएं 

अपनी प्रचुर संभावनाएं 
नूतन दृष्टि से अपनाएँ 
विकास की ओर 
ठोस समर्पित कदम बढाएँ 

दीपावली 
न मेरी न तुम्हारी 
ये आलोकित सौगात 
है हमारी 

अपनेपन का ओजस्वी नाम है दीपावली 
मानवता का राजमार्ग, ये नहीं क्षुद्र गली 

दीपोत्सव सकारात्मक चिंतन का 
स्वच्छ सुदर्शन आँगन 
मधुर पकवान, नए परिधान 
दीप पर्व पर आपका अभिनन्दन 


अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका 
१९ अक्टूबर २०१६ 

Sunday, October 9, 2016

दुलार रही जगदम्बा


१ 
टप टप 
बूँद बूँद 
आशीष 
भोर फटने से पहले ,
लगा अपनी छाती से 
दुलार रही जगदम्बा 
२ 
मुस्कान माँ की 
हर लेती आशंका 
बिसरती अपेक्षा आकार की 

हाथ थाम मेरा 
खेल खेल में 
भागती साथ मेरे 
फिर रुक कर 
खिलखिलाती है 
हंस हंस बताती है 
माँ पर सब छोड़ कर देखो,
मैय्या तुम्हें कहाँ से कहाँ पहुंचाती है 


३ 

सब 'माँ' पर छोड़ा 
तो मेरा क्या?
मायूसी से पूछा जब 
मूक नैनों ने 

बोल पडी माँ 
अपने नैनों से 

'तुम्हारा?"... 
"तुम्हारी माँ है ना!"

४ 

"पर?",,
ठीक है 
हंसी माँ 
खिलखिलाई 
अपने रूप रूप में समाई 
पर जाते जाते ये बात बताई 
"ठीक है." तुम 'पर' का खेल रचाओ 
अपनी मैं की धुरी पर अनुभव सजाओ 
बुला लेना मुझे 
जब खेलते खेलते थक जाओ 


 दौड़ी आऊंगी मैं,
जब जब भी तुम बुलाओ 


५ 

आज मैं ने माँ को बुलाया 
अपने आंसूओं का समंदर दिखाया 
अपने हार के चिन्हों को भी नहीं छुपाया 

संशय के जंगलों की 
कंटीली झाड़ियों का किस्सा सुनाया 
मेरी हालात देख माँ का मन भर आया 

थोड़ा संभला जब तो समझ ने सुझाया  
 शायद ऐसा इसलिए हुआ 
क्योंकि मैं ने माँ को बिसराया 

६ 

माँ हाथ पकड़ कर 
मेरी कलम चलाओ 
अपने महिमा 
अपने शिशु से लिखवाओ 
छुड़ा दो अब 'पर' मुझसे 
मेरा ये 'मैं' का खेल हटाओ 
क्षमा करो माँ , मूढ़ हूँ 
अब मुझे छोड़ कर न जाओ 


अशोक व्यास 
रविवार, दुर्गाष्टमी 
९ अक्टूबर २०१६ 
 न्यूयार्क 




सुंदर मौन की गाथा

   है कुछ बात दिखती नहीं जो  पर करती है असर  ऐसी की जो दीखता है  इसी से होता मुखर  है कुछ बात जिसे बनाने  बैठता दिन -...