Wednesday, March 28, 2012

शाश्वत के आलिंगन में




और अब
इस विराम में
मधुर विश्रांति का यह
सहज विस्तार
धीरे धीरे
घुलता है
मुझ में
या शायद
घुल जाता हूँ मैं 
इस निशब्द स्थल की
समयातीत आभा में

मुक्त होना
जिस क्षण सजीव होता है
चित्र नहीं ले सकता कोई उस क्षण का
शायद इसलिए की
शाश्वत के आलिंगन में
जगमगाता वह क्षण
किसी सजगता के कैमरे के पीछे छुपी आँखों से
देखा ही नहीं जा सकता कभी

यहाँ होना
कहीं पहुंचना नहीं
परे होना है
यहाँ और वहां के भेद से
कुछ इस तरह 
की अपनी पहचान को लेकर
किसी तरह का भय शेष ही न रहे

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२८ मार्च २०१२ 

Saturday, March 24, 2012

अपना रिश्ता नए दिन के सूरज के साथ

सूर्योदय से पहले
ढूंढ रहा हूँ
अपना रिश्ता
नए दिन के सूरज के साथ

मौन में उतर कर
शब्द जहाँ
मौन के साथ 
एक मेक हो  जाते हैं

पहले तो तुम
मिला करते थे
मुझे वहां

अब भी
निशब्द  आवाज़ दे रहा हूँ
तुमको
इस दृश्य जगत से परे के
क्षेत्र से

और
सुन रहा होऊँ
अचेतन में
तुम्हारे आगमन की
आश्वस्ति उन्ड़ेलती आहटें   

अब
यह भी स्मरण हुआ
की
अपना रूप छोड़े बिना
  संभव नहीं होगा तुमसे मिलना 

तो शायद 
 यह अपने रूप का मोह ही है
जो
छुपा देता है 
मेरा रिश्ता
नए दिन के सूरज के साथ



अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२४ मार्च २०१२ 

Monday, March 19, 2012

एक भाव आकृति

बात तब तक 
बंद ही थी
जब तक 
देख न लिया 
तुम्हारी आँखों में
और
सारे गोपनीय सूत्र
उजागर होने के बाद
सन्दर्भों के गलियारे से
चुपचाप 
तुम्हारी दृष्टि के ताप में
निकल कर
बन गयी
थी 
एक भाव आकृति

बात 
तब तक बंद ही थी
और
अब
जब
खुल गयी है बात
न जाने क्यों
बंद बंद सा हो गया हूँ मैं


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका १९ मार्च २०१२ 

Friday, March 16, 2012

प्रार्थनामय मन


तुम्हारे साथ
फिर से
इस तरह
सुन्दर क्षणों का
सहज स्पर्श
संभव कर दिया है जिसने

साथ उसका
नित्य निरंतर
जाग्रत रहे
बोध में भी
इसीलिए उतरती है
कविता


कविता 
प्रार्थना है
जीवन की
जीवन से
जुड़ाव के अंतिम पड़ाव तक
लिए चलती है
मेरे सूक्ष्म स्वरुप को

सहेज कर 
इस गोपनीय उड़ान के
कुछ पदचिन्ह

सजाते हुए शब्दों में

पुनर्जीवित होता है
मेरा प्रार्थनामय मन


अशोक व्यास
१६ मार्च २०१२ 

Thursday, March 15, 2012

अपने विस्तृत एकांत में



मुस्कान की कोपलें फूटती हैं
किरणें आत्मीयता के उजियारे की
फैलती हैं

रमा हुआ 
अपने विस्तृत एकांत में
अब
जब
बतिया सकता हूँ
सबसे
किसी भी क्षण
सहसा

यह एक मधुर मौन की नदी
सुनाते हुए अपनी कल-कल मुझे
उन्ड़ेलती है
प्रसन्नता का भीगा स्पर्श
जिसे लेकर
तुम्हें छू लेने के लिए
सहज है
इस पुलकित निश्चलता में
तन्मय होकर
मिला देना
अपनी सांस को
विराट की सांस के साथ

मुस्कान की कोपलें 
फूटते फूटते
छू रही हैं
हर दिशा को
और
मैं
अपने आप में मगन
अपना सब कुछ
सौंपने को तत्पर हूँ
उसे
जिससे
पाया है सब कुछ
और
जिसकी महिमा गाने से ही
सार्थक है 
मेरा हर एक पल


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१५ मार्च २०१२ 

Wednesday, March 14, 2012

फूलों के बगीचे में



मैंने
फूलों के बगीचे में
स्वच्छ धूप के साथ बैठ कर
याद किया
वो दिन
जब मेरी अंगुली पकड़ कर
गुरु ने सिखलाया था
लिखना
'जीवन'


और भीगी अँगुलियों से
याद करता रहा
कितनी कितनी बार
जीवन के स्थान पर
लिखता रहा हूँ
मृत्यु


मैंने
अपने चेहरे पर
तपती धूप का रुमाल ओढ़ कर
याद किया
गुरु ने
सिखलाया था
आँखें खोल कर चलना
और
याद आया
कितनी कितनी बार
आलस्य के कारण
चलता रहा हूँ
आँखें मूंदे-मूंदे
किसी और की आँखों को 
पथ दिखलाने का उत्तरदायित्व सौंप कर 


मैंने  
अपने को
स्वर्णिम स्मृतियों में लपेट कर
फिर से जीवित कर दिया 
जिस क्षण

खिलखिला उठा
चमचमाता हुआ संसार


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१४ मार्च २०१२ 

Monday, March 12, 2012

बिना किसी अपेक्षा के


उस दिन 
सूरज ने सपने में आकर
पूछ लिया प्रश्न
मैं अपनी किरणें भेज कर
उजियारा करता हूँ
तुम्हारा पथ
निकाल देता हूँ
अँधेरे में डूबा तुम्हारा सारा संसार
ताकि
तुम जुड़ सको सबसे
इसके बदले में
मुझे क्या दोगे आज तुम
सपने में भी
असहमति व्यक्त करते हुए
कहा था मैं ने 
सूरज से
'ये मनुष्य की तरह 
लेन-देन की बातें
आपको शोभा नहीं देती
आपका काम है देना
बस देते रहें'
सूरज मुस्कुराये
'मैं 
बस देता रहूँ
बदले में कुछ न मांगू
ठीक है!
और तुम?"
सूरज के इस प्रश्न के साथ ही
मैं
नींद से जागा
खिड़की से
सूरज के आगमन के संकेत
घर में
उजियारा बिखेर रहे थे
बिना किसी अपेक्षा के
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१२ मार्च २०१२                        

सुंदर मौन की गाथा

   है कुछ बात दिखती नहीं जो  पर करती है असर  ऐसी की जो दीखता है  इसी से होता मुखर  है कुछ बात जिसे बनाने  बैठता दिन -...