Wednesday, March 14, 2012

फूलों के बगीचे में



मैंने
फूलों के बगीचे में
स्वच्छ धूप के साथ बैठ कर
याद किया
वो दिन
जब मेरी अंगुली पकड़ कर
गुरु ने सिखलाया था
लिखना
'जीवन'


और भीगी अँगुलियों से
याद करता रहा
कितनी कितनी बार
जीवन के स्थान पर
लिखता रहा हूँ
मृत्यु


मैंने
अपने चेहरे पर
तपती धूप का रुमाल ओढ़ कर
याद किया
गुरु ने
सिखलाया था
आँखें खोल कर चलना
और
याद आया
कितनी कितनी बार
आलस्य के कारण
चलता रहा हूँ
आँखें मूंदे-मूंदे
किसी और की आँखों को 
पथ दिखलाने का उत्तरदायित्व सौंप कर 


मैंने  
अपने को
स्वर्णिम स्मृतियों में लपेट कर
फिर से जीवित कर दिया 
जिस क्षण

खिलखिला उठा
चमचमाता हुआ संसार


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१४ मार्च २०१२ 

3 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

जिसने जीना हो सिखलाया, उसका ही सारा जीवन हो।

Anupama Tripathi said...

उज्जवल स्वर्णिम अनुभूति ...

Jeevan Pushp said...

बहुत सुन्दर सृजन !
आभार !

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