Wednesday, October 30, 2013

एक नया आलोक- वृत्त


देखते देखते एक नई परत 
एक नया रूप 
चांदनी के फूल लेकर 
चलता हुआ वह 
हो गया 
अदृश्य 
सहसा 
नदी के छोर पर 
ऐसे जैसे 
नदी में प्रवेश से पहले 
हवा ने ही 
आलिंगनबद्ध कर लिया हो 
उसे 

२ 

देखते देखते 
एक नया आलोक- वृत्त 
चलते चलते 
पहुँच कर उसके पास 
सिमट गया 
उसकी हथेलियों में 
 
और उससे हाथ मिला कर 
यह जो नूतनता की 
महीन सी चादर 
ठहर गयी है 
मेरे भीतर 
इस स्पर्शातीत बोध में 
जगमगाता मन 
उसे याद करते करते 
अब तो 
भूल जाता है 
स्वयं को भी 
 
इस अपरिभाषित स्थल पर 
अपने सीमातीत भाव के साथ
 मेरे रोम रोम से 
सबके लिए प्रेम 
सबके लिए मंगल भाव 
उमड़ -उमड़ आती हैं 
अनायास 
और 
मैं 
समग्र चेतना में 
सम्माहित 
मुस्कुराता हूँ 
ऐसे कि 
लुप्त हो जाती 
हर विभाजन रेखा 
 
अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका 
३० अक्टूबर २०१३


Saturday, October 26, 2013

पुराने की परिधि पार -2


पुराने पन्नो से
 सहेजता हूँ 
अपने ही शब्द 
जो समय के साथ
 न जाने कहाँ से 
ले आते हैं नयापन
जो पुराने की परिधि पार 
जगमग करता है 
ना जाने कैसे 
अपने आप 
-----------------
ॐ 

यह 
मंथर बहती नदी 
मद्धम गूंजते चिरंतन गीत 
समेत कर 
अपनी बाँहों में 
ध्यानस्थ है 
विराट का मौन 
आज 
बस यह अदृश्य यात्रा 
और समर्पित 
इसी को 
सब कुछ अपना 
२ जुलाई २०१३
-----------------
जो है यह 
मेरा होना 
यहाँ- वहां 
ऐसे-वैसे 
अलग- अलग 
मनःस्थितियों को 
भोगता हुआ 
मैं 
विस्मृत कर 
अपने होने का तात्पर्य 
कभी बिलखता हूँ 
कभी मुस्कुराता हूँ 
खंडित खेल में 
अपनी पूर्णता का पता 
भूल जाता हूँ 

२ 

प्रवाह में 
कहाँ दीखता है 
अस्तित्त्व बूँद का 
पर मुझमें तो 
है आग्रह 
अपनी अलग पहचान का,
क्या तुमने ही 
नहीं दिया प्रसाद 
इस आग्रह का 
 मुझे अपने से अलग 
एक चलती फिरती इकाई 
बना कर,
पर 
तुम्हारी लय में 
लयान्वित होने 
आज 
पूछ रहा 
अपना यह आग्रह छोड़ने की विधि 
एकाकी करता है 
आग्रहों का यह बंधन,
मुक्त होकर इस घुटन से 
कैसे मिलेगा मुझे 
सीमातीत आश्रय तुम्हारा 
ओ अनंत आकाश 
है तो सही 
अलग अलग ध्वनियों में 
समन्वय सजा कर 
सौंदर्य उजागर करने वाली 
यह एक दृष्टि 

पर मेरे शब्दों को 
ढक लेती है 
ये किसकी छाया 
जो नहीं देखने देती 
शब्द से परे,
अर्पित कर स्वयं को तुम्हारे चरणों में 
देखता हूँ
अनुग्रह किरण छूकर 
पारदर्शी होने लगे हैं 
शब्द जब
संभव है अब 
खुल जाए असीम विस्तार 
 (मई २०१३ भारत में लिखे गए शब्द )
अशोक व्यास 
न्यूयार्क, 
२६ अक्टूबर २०१३

पुराने की परिधि पार



पुराने पन्नो से
 सहेजता हूँ 
अपने ही शब्द 
जो समय के साथ
 न जाने कहाँ से 
ले आते हैं नयापन
जो पुराने की परिधि पार 
जगमग करता है 
ना जाने कैसे 
अपने आप 

---------------

 शिकायत नहीं 
स्वीकरण 
परमानन्द प्रदाता का 
वरन 
प्रसरित 
शुद्ध, मंगल भाव 
जाग्रत 
भावातीत का प्रभाव 

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मौन 
आश्वासन 
पूर्णता 
शांति 
उल्लास 
सहजता 
सौम्यता 
निश्छल प्रसन्नता 
रसमय धारा 
संक्षिप्त संवाद 
गूढ़ परत अनवारण 
एकाग्रता 
तन्मयता 
समर्पण 
साष्टांग दंडवत 
(रमण महर्षि जी की सन्निधि में १३ अगस्त २०१३ )
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अशोक व्यास 
न्यूयार्क, २६ अक्टूबर २ ० १ ३





Sunday, October 20, 2013

अनंत का अभिनन्दन है


१ 
बस इतना ही हुआ उसे देख कर 
भूल गया और कुछ देखना 

२ 

उसने पूछा जब मेरा नाम 
तब 
याद ही न आया 
अपना नाम और पता 

पता नहीं 
क्या समझ होगा 
मेरे बारे में उसने 

३ 


एक एक पल 
स्वप्निल सा 
और चांदनी से नहाई 
पगडंडी पर 
जैसे 
इठला कर 
छेड़ दिया 
राग नव जीवन का 
उसके साथ ने 

४ 

इस बार 
बस ये सोच कर चला था 
उसके साथ 
की 
सोचना नहीं 
होना भर है 
सूक्ष्म सतह पर 
शुद्ध स्वरुप में 
बिछ जाना है ऐसे 
की 
मेरे होने के 
रेशे रेशे में 
सम्माहित हो जाए उसका होना 


५ 

इस बार 
पलट कर लौटना नहीं 
इस घर में 
जहाँ बंधन है 
जहाँ क्रंदन है 

इस बार 
उसके साथ चल कर 
बस जाना है वहां 
जहाँ नित्य 
अनंत का अभिनन्दन है 



अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका 
२० अक्टूबर २०१३ 

Sunday, October 13, 2013

पूर्णता से हाथ मिला कर


1
लिख लिख कर मिटाया
दिन खाली ही बिताया

पूर्णता से हाथ मिला कर
अपूर्णता से बच न पाया

जाने कहाँ खोया रास्ता
मैंने जब कदम बढ़ाया

लापता है कहीं मंजिल मेरी
बात कहते हुए मैं घबराया

     २

दिन कटोरे सा हाथ में मेरे
फिर से मैया के द्वार पर आया

तू अगर सत्य नहीं है माँ तो
मेरा होना भी है छल की छाया 

तेरी गोदी की ललक लेकर ही 
सांस में सार रस उतर पाया

मुझको नहला - धुला मेरी माता
खेल सब छोड़ के मैं घर आया

बड़ा मूर्ख हूँ, कुछ नहीं जानूं
इतना जानूं हूँ, तू ने अपनाया

     अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१३ अक्टूबर २०१३

Saturday, October 12, 2013

मुक्ति के नए चरण




यह 
जो मुक्ति के नए चरण हैं
इतने शांत, इतने शुद्ध, सौम्य

यहाँ
न कोइ पुराना स्वर
न बीते दिनों के पदचाप

सब कुछ
असीम उजियारे में धुला हुआ

मौन में घुली हुई
तन्मयता की चांदनी

अब जब चल दिया हूँ
युधिष्ठिर की तरह
पिघल कर मिट जाने तो प्रस्तुत हूँ
इस पथ पर
जहां
मिट जाना
अमिट हो जाना है


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
अक्टूबर ११, २०१३


सुंदर मौन की गाथा

   है कुछ बात दिखती नहीं जो  पर करती है असर  ऐसी की जो दीखता है  इसी से होता मुखर  है कुछ बात जिसे बनाने  बैठता दिन -...