Tuesday, September 30, 2014

शब्द कहलाते हैं - मैं ही ज्ञाता हूँ

१ 
यह जो हो रहा है 
इस क्षण 
इन शब्दों का उगना 
मेरा नियंत्रण नहीं है इस पर 

मैं तो साक्षी भर हूँ 

कर रहा हूँ अगवानी 
नहीं कर सकता मनमानी 
पूरे आदर से 
देखता हूँ इन शब्दों में 
संभावित अनंत 

अपने हिस्से की परत 
मैं नहीं चुनता 
बस वह जो चुना गया है 
मेरे लिए 
कृतज्ञता से ओत-प्रोत 
श्रद्धा से प्रस्तुत हूँ 
उसे अपना लेने 

२ 

अपनी निर्माण प्रक्रिया में 
मैं इस तरह 
अज्ञात का हाथ बंटाता हूँ 
 तत्परता से 
शब्द संकेत पर चलता चला जाता हूँ 
अनादि काल से चल रहे 
शब्द सम्बन्ध को निभाता हूँ 

अपने उद्गम का पता लगाते लगाते 
किसी चुपचाप क्षण 
उस अनुभूति में उत्तर जाता हूँ 
अपना परम विस्तार देख पाता हूँ 
शब्द कहलाते हैं 
तो कह जाता हूँ 
मैं ही ज्ञेय हूँ 
मैं ही ज्ञाता हूँ 



अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका 
३० सितम्बर २०१४ 

काल प्रवाह में ...



मैं अब जानने लगा हूँ 
तस्वीरें भी झूठ हो सकती हैं 
क्योंकि 
वह सब 
जो जिया, भोगा, पाया-खोया 
काल प्रवाह में 
किसी एक क्षण 
व्यर्थ सा लग सकता है 
और 
वह 
जिसे हम व्यर्थ मानते हैं 
जिसमें हमारा अर्थ नहीं है 
सत्य कैसे हो सकता है हमारा ?

तो फिर क्या है 
जो झूठी तस्वीरों से 
हमारी और झांकता है 

क्या  हम 
अपनी अंतर्दृष्टि से 
आज भी पहुंचा पाते हैं 
सत्य किरण का नूतन स्पर्श 
उन सब स्थलों तक 
जहां जहां 
हम हो आये हैं 

हममें ये कैसा हुनर है 
आज को छोड़े बिना हम 
अतीत तक जाते हैं 
और भविष्य की टोह भी ले आते हैं 
इस तरह 
कालातीत होने का स्वांग तो भरते हैं 
पर कालमुक्त नहीं हो पाते हैं 

अशोक व्यास 
न्यूयार्क 
सितम्बर ३०, २०१४ 




Thursday, September 25, 2014

लिख लिख कर मिटाया



लिख लिख कर मिटाया 
भाव को बिसराया 
थपथपाया था जिसने 
वो हाथ न आया 


मैं इस तरह साँसों के संगीत से लुभाया जाता हूँ 
नए रास्तों के बुलावे  पर यूं ही  मुस्कुराता हूँ 
कभी ठहरे ठहरे ही पूरी यात्रा कर आता हूँ 
और कभी चलते चलते भी ठहरा रह जाता हूँ 


अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका 
२५ सितम्बर २०१४ 

Saturday, September 20, 2014

अपने होने की परम्परा



परंपरा में 
एक गति है 
उत्साह है 
सम्बल है 
प्रेरणा है 
पुकार है 

देखते हुए 
अपने होने की परम्परा 
समय सापेक्ष सन्दर्भों से छूट 
होता हूँ अग्रसर 
अनंत की ओर 
सहज ही 

क्रीड़ा सी हो जाती 
सारी चुनौतियाँ 
एक शंख बजता है 
एक पवित्र एकांत सा 
सुलभ हो जाता भीतर 

अपने अटूट स्वरुप में 
अनछुई सी आस्था 
उमड़ आती है 
सहसा 

कहते हुए भी 
बना रहता है मौन 

और 
बोध मौन के इस साक्षी का 
सुन्दर कर देता है 
मेरा हर क्षण 

मैं 
एक बिंदु से दुसरे बिंदु तक 
दृश्यमान जीवन के पार तक 
अपने होने की 
गहन आश्वस्ति लिए 

इस असीम सेतु की गोपनीयता का 
सम्मान करता हूँ 

मेरे होने की एक परम्परा है 
यह पहचान देने वाली श्रद्धा 
अपने से पूर्व और पश्चात देख कर 
बढ़ती जाती है 
इस तरह देखने वाली दृष्टि 
जिन चरणो से आती है 
उन चरणो में श्रद्धा ही 
मेरा निर्माण करवाती है 



अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका 
२० सितम्बर २०१४ 

Friday, September 19, 2014

मैं एक तीर्थ हूँ


लिखना कुछ नहीं 
बस देखना है 
इस क्षण को 

इस क्षण को नहीं 
अपने को इस क्षण में 

छू लेना है उसे 
जिसे कहा जाता है 
मेरा होना 

शब्द ऐनक लगा कर 
अपने आप में सम्माहित 
मैं 
सुन रहा हूँ 
दूर से गूंजता
 एक नाद 
स्पंदन सा यह 
बह आता जो 
काल की परतों के पार से 
कैसे सम्बंधित है मुझसे 
महसूस करता 
सीमा पार की अपनी उपस्थिति 

मैं मुग्ध हो लेता हूँ 
किस अनिवर्वाचनीय अनुभूति के स्वाद में 
और एक अज्ञात गुफा में बैठ कर निश्चल 

दीप्त भाल लिए 
निहारता हूँ एक यह अचीन्हा विस्तार 

और देखते देखते 
मिटने लगता है
 मेरे और इस विस्तार का भेद 

मेरे चहुँ और उतरती हैं, बहती हैं, छछलाती हैं 
कई कई धाराएं प्रेम और मंगल कामनाओं की 

मैं एक तीर्थ हूँ 

अशोक व्यास न्यूयार्क, अमेरिका 
१९ सितंबबर २०१४ 

Wednesday, September 10, 2014

हम साक्षी भर हैं














सचमुच
यह जो शब्द हैं 
तुम्हारे लिए नहीं हैं 
न ही मेरे लिए 
ये हैं 
क्योंकि इन्हें होना है 

इन्हें होना है 
एक यात्रा के लिए 
यात्रा जिसका गंतव्य 
छुपा है 
कहीं इनके भीतर 
ऐसे की 
होता जाता है प्रकट 
इनकी गति के साथ 

मैं और आप 
साक्षी हैं 
इनकी यात्रा के 
जाने अनजाने 
देख रहे हैं 
ये पगडंडियां 
ये जंगल 
ये झरना 
ये पर्वत 
ये बस्ती 
ये भीड़ 
ये एकांत 
ये शांत सघन छाया 
जिससे छा रही है 
सारे जग की छटपटाहट 

ये शब्द 
कैसे बचा कर रखते हैं 
अडिग आश्वस्ति 
अजेय शांति 
और 
ये आस्था 
जो बाहरी जगत से लुप्त होते होते भी 
सुरक्षित है 

इन शब्दों में 
ये अमृत सिंधु शब्द 
न मेरे हैं 
न तुम्हारे 

हमारे होते 
तो हमारी सीमाओं में उलझ कर रह जाते 
शायद कोई क्षुद्र गीत गाते 
शायद इनमें छलक जाती 
हमारी ही कोई सीमित कामना 
शायद इनमें उभर आता 
कोई आक्रोश, 
कोई प्रतिशोध 
कोई बेचैनी 

पर अच्छा हैं 
हमसे मुक्त हैं ये शब्द 
इनकी मुक्ति में 
झिलमिला रही है हमारी मुक्ति 

देख देख 
इनकी यात्रा 
मिलता है परिचय उसका 
जो सीमातीत है 
जो समयातीत है 

और यह परिचय मेरा तो नहीं लगता 
तुम्हारा तो नहीं लगता 

ये शब्द 
देते हैं परिचय 
उसका 
जो 'मेरे - तुम्हारे' से परे है 
ये शब्द 
न मेरे हैं 
न तुम्हारे 

बस हैं ये 

हम साक्षी भर हैं 
इन शब्दों की यात्रा के 
जिसके होने से जुड़ा है 
हमारा होना 

अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका 
१० सितम्बर २०१४ 

कृतज्ञता का नया ग्रन्थ





लो फिर लौट आया अपने घर 
नहीं है उत्सव 
न सही 
नहीं है सपनो की चकाचौंध 
ना सही 

यहाँ 
यह जो अपनापन है 
मेरे हिस्से का 
इसी में 
खुलती है 
एक खिड़की अनंत दर्शाती 
यहाँ से 
निशब्द 
उतरता है 
यह जो शांत आलोक 
इसमें भीगता 
रमता 
तन्मय होता 
लीन अपने से परे के मौन में 

मैं 
भूल जाता हूँ 
उन गलियों को 
जहाँ मेरा हाथ पकड़ कर चलता था अधूरापन 

यह जो होना है 
अपने घर में 
अपने साथ 

यह होना 
जो बाजार में बिकता नहीं 
मेरे सिवा किसी को दीखता नहीं 

यह 
जो है मेरा पूर्ण होना 
 इसमें आनंदित 
प्रकट 
कृतज्ञता का नया ग्रन्थ 
अर्पित उसे 
जिसने कभी थामी थी रास 
अर्जुन के रथ की 


अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका 
१० सितम्बर २०१४ 





Sunday, September 7, 2014

तुम्हें ही पुकारता हूँ विराट

स्वामी श्री ईश्वरानन्दगिरी जी महाराज
(चित्र- अभिषेक जोशी)

किसी एक क्षण में 
सहसा उड़ा ले जाता कोई 
सारी खुशियां 
सारा संतोष
 सरक जाता  
आधार आनंद का

न जाने कैसे 
एक नन्हे से क्षण में 
अचिन्ही  पारदर्शी परत 
खिसका देता संतुलन 
संवाद समीकरण का

तब 
त्रिशंकु की तरह 
धरती - आकाश के बीच लटकता

तुम्हें ही पुकारता हूँ विराट 
क्योंकि 
तुम ही तो हो धरती 
तुम ही हो ना आकाश !

अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका 
सितम्बा २०१४ 

२ 
जब जब 
जहाँ जहाँ 
लड़खड़ा कर गिरने से बचने के लिए 
छू लेता हूँ 
तुम्हारा नाम ,

उज्जीवित होना अपना 
अज्ञात कंदराओं से 
विस्मित करता है 
मुझे ही

पर मेरे स्वामी 
टूट - टूट ,बिखरने -जुड़ने का 
यह क्रम 

यह एक चक्र अनवरत 
कब  तक और किसलिए 
कभ मिलेगी मुक्ति 
अपनी मूढ़ता से- ओ मोहन मेरे 


अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका 
सितम्बर २०१४ 

सुंदर मौन की गाथा

   है कुछ बात दिखती नहीं जो  पर करती है असर  ऐसी की जो दीखता है  इसी से होता मुखर  है कुछ बात जिसे बनाने  बैठता दिन -...