Monday, January 20, 2014

अब वह भी हंस पड़ा


बड़ी चुपचाप सी महफ़िल थी 
लोग आस्मां की तरफ नज़रें जमाये थे 
कोई भी न हिल रहा था 
न बोल रहा था 
पर ये सब जीते जागते लोग थे 
ऐसी बात हवा से मालूम हो रही थी 
मूर्तियां होतीं तो उनमें 
इस तरह की आश्वस्ति या अहंकार न दमकता 

मूर्तियां होती तो 
उनके आस पास उपलब्धि की सम्भावना से 
इस तरह का उत्साह न जगमगाता 
मूर्तियां होती तो 
उनके आस पास 
तलाश की थकान वाली 
मिटटी की गंध न होती 

२ 
उसे मालूम था 
वो सब अपनी अपनी 
कविताओं की अगवानी करने 
इस शिखर पर बैठ कर 
अनुभूति और अभिव्यक्ति के सम्बन्ध का 
अनूठा स्वाद ले रहे थे 

उसे लगा 
शायद वे सब 
उसकी उपस्थिति से अनजान होते हुए भी 
उसके वहाँ होने पर आपत्ति उठा रहे थे 

उसे अदब की निगरानी करने वाली 
एक नज़र ने 
मुस्कुरा कर कह भी दिया 
तुम्हारे नाम तो आज 
कोइ कविता आस्मां से उतरने वाली नहीं है 

३ 

वो उठ कर चलने को हुआ 
दो कदम चला होगा 
कि एक नन्ही सी कविता भागती हुई आई 
उसकी अंगुली पकड़ कर साथ साथ चलने लगी 
उससे कहा 
मुझे पहचाना, मैं तुम्हारी माँ हूँ 

माँ वो ही तो नहीं 
जो तुम्हें जन्म देती है 
माँ वो भी तो है न 
जो तुम्हें बनाती है 


४ 

तुम मुझे बना कहाँ रही हो 
बनने की चाह लेकर ही तो 
बार बार रोया हूँ 

इसिलए तो मैं आई हूँ बेटा 
रोते रोते तुम कहीं 
अपने आपको 
बनाने की जगह बिगाड़ न लो 

५ 
अब वह भी हंस पड़ा 

हँसते हँसते 
नन्ही कविता ने कहा 
'सुनो 
याद रखना 
जब दिखाई न दूं तब भी 
मैं होती हूँ साथ तुम्हारे 
और मुझे बुलाने के लिए 
तुम्हें आसमान की तरफ नहीं 
अपने भीतर देखना है '

तुम्हारे अंदर 
इस क्षितिज से उस क्षितिज जितना विस्तार है 

कहते कहते 
कविता ने अपने संकेत से 
उसकी दृष्टि को दूर तक पहुंचाया 
और 
स्वयं अदृश्य रूप में विलीन हो गयी 



अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका 
२० जनवरी २०१४ 

Saturday, January 18, 2014

देवदारू का सामिप्य


१ 
मैं उसे देखता हूँ 
जो लहर की तरह उठता है 
मेरे भीतर 
और मेरे देखने से 
सकुचा कर 
छुप जाता है 
मुझ में ही 

२ 

बाहें फैला कर 
प्रेम भरी मुस्कान में भीगा 
भेजता बुलावा 
स्वर्णिम मौन को 
आओ 
मैं अपनाऊं तुम्हें 
तुम मुझे अपनाओ 

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कलम मेरे हाथ में है 
अंगूठे और दो अंगलियों के बीच 
इस तरह धरी की 
सधी हुई गति कर पाये 

सुबह का झकाझक उजाला 
प्रसन्नता से भर रहा 
मौन को 

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(२-९-१००९)

यह नूतनता का आव्हान 
तुम्हारी महिमा का गान 
ओ अनंत करूणामय 
तुम सर्वत्र विद्यमान 

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दिखता है 
लौट कर 
जकड सकते हैं 
वही बंधन 
हो सकता है प्रारम्भ 
वही क्रंदन 
यदि देवदारू का 
सामिप्य भुला कर
फिर नीम-बबूल संग 
रगड़ खाने लगे मन 
(जून १, २०१३)

अशोक व्यास 
(संकलन ब्लॉग हेतु जनवरी १८, २०१४)

Tuesday, January 14, 2014

सब के सब हैं ख़ास





यदि आत्मीय दृष्टि से देखने का निरंतर हो अभ्यास
 तो नहीं दिखे आम आदमी कोई, सब के सब हैं ख़ास 

और अपने नाम से यदि कुछ सीखते प्रशांत भूषण 
तो कभी न फैलाते खंडित विचारों का अशांत प्रदूषण 

कथनी-करनी में साम्यता नहीं जिनके आस-पास 
कैसे विश्वसनीय हो सकते हैं वो कुमार विश्वास 

बिखर जाएँ तिनके झाड़ू के, तो बिखराव दिखाते हैं 
गन्दगी दूर करने की बजाय, और गन्दगी बढ़ाते हैं 

साफ़ हो या बदली छाया हो आसमान 
अर्जुन की आँख से ही मिलेगा समाधान 

तन्मयता से करना है लक्ष्य का अनुसंधान 
सत्य का सम्मान से ही भारत रहे महान 


अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका 
लिखा १३ जनवरी २०१४ 



आकर्षण पतंग का


"उत्तरायण में अहमदाबाद खींच लाया आकर्षण पतंग का 
"जय हो" कहने आ  गया 'नमो"' के साथ नायक दबंग का 

अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका 
१४ जनवरी २०१४ 

Saturday, January 11, 2014

कोई स्थल विश्राम का

 
लिख लिख कर बार बार 
पता अपना पूछता हूँ अज्ञात से 
हर बार एक सिरा 
मिल ही जाता है उसकी बात से 

सिरा थाम कर अदृश्य पगडंडी पर 
धीमे धीमे बढ़ जाता हूँ 
इस अनुसंधान में अनजाने 
कुछ नया सा गढ़ जाता हूँ 
 
भूल भुलैया के बीच 
स्पष्टता की एक झलक पढ़ जाता हूँ 
सत्य है बस तुम्हारा साथ 
इस सम्बल से कई पर्वत चढ़ पाता हूँ

२ 

लिख लिख कर कई बार 
कुछ नए रास्तों पर भटक जाता हूँ 
वही वही शब्द वही वही बात 
उसी उसी चौराहे पर अटक जाता हूँ 

फिर थक हार कर 
ढूढता हूँ कोई स्थल विश्राम का
और कर लेता 
उपयोग तुम्हारे नाम का 

३ 

तुम्हारा नाम 
यहाँ से वहाँ 
सब जगह असर करता है 
फिर क्यूँ 
एक कोई मेरे भीतर 
हर स्थिति में डरता है

४ 

लिख लिख कर 
इस तरह जब मैं अपने आप को दोहराता हूँ 
देख देख कर 
मुझे ढकने वाली परछाईयाँ हटाता हूँ

न जाने कैसे, इस दोहराव के द्वारा 
मैं एक नूतन आलोक अपनाता हूँ 
 
और सहज ही हो जाता कुछ ऐसा 
हर भटकाव से परे हो जाताहूँ 
 
 
अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका 
११ जनवरी २०१४

Friday, January 3, 2014

नई पहचान के पुष्प


उसके पास जो कुछ भी था 
कीमती, महँगा और बहुमूल्य 
सब कुछ 
सारहीन  हो चला था 
एकाएक 
नए परिवेश में 
अपने लिए 
नया पहचान पत्र बनवाने 
अपने भीतर उतरने का रास्ता 
देख ही न पा रहा था वह 
और 
इस उहा पोह में 
घना एकाकीपन 
उसे घेर कर 
बढ़ा रहा था 
एक भय सा 

२ 

ऐसे में 
उसे मालूम था 
कभी कभी 
न जाने कहाँ से 
उभर सकती है 
एक आवाज़ 
जिसका स्पर्श 
स्नेहिल ऊष्मा से 
भर सकता है 
सारे परिवेश को 
और 
जहाँ है वहीं 
खिल सकते हैं 
नई पहचान के पुष्प 

३ 

वह अब भी 
सारी अनिश्चितता 
और संशयों के बीच 
सुन रहा था 
श्रद्धा नदी के प्रवाह का 
मद्धम स्वर 
अपने भीतर 

तो क्या 
वह आवाज़ 
जो रूपांतरित कर देती है 
सब कुछ 
हर बार 
आती रही है 
मेरे ही भीतर से ?


सोच कर वह मुस्कुराया 
और सूरज उग आया 

अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका 
३ जनवरी २०१३ 

सुंदर मौन की गाथा

   है कुछ बात दिखती नहीं जो  पर करती है असर  ऐसी की जो दीखता है  इसी से होता मुखर  है कुछ बात जिसे बनाने  बैठता दिन -...