१
मैं उसे देखता हूँ
जो लहर की तरह उठता है
मेरे भीतर
और मेरे देखने से
सकुचा कर
छुप जाता है
मुझ में ही
२
बाहें फैला कर
प्रेम भरी मुस्कान में भीगा
भेजता बुलावा
स्वर्णिम मौन को
आओ
मैं अपनाऊं तुम्हें
तुम मुझे अपनाओ
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कलम मेरे हाथ में है
अंगूठे और दो अंगलियों के बीच
इस तरह धरी की
सधी हुई गति कर पाये
सुबह का झकाझक उजाला
प्रसन्नता से भर रहा
मौन को
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(२-९-१००९)
यह नूतनता का आव्हान
तुम्हारी महिमा का गान
ओ अनंत करूणामय
तुम सर्वत्र विद्यमान
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दिखता है
लौट कर
जकड सकते हैं
वही बंधन
हो सकता है प्रारम्भ
वही क्रंदन
यदि देवदारू का
सामिप्य भुला कर
फिर नीम-बबूल संग
रगड़ खाने लगे मन
(जून १, २०१३)
अशोक व्यास
(संकलन ब्लॉग हेतु जनवरी १८, २०१४)
2 comments:
हर तत्व में स्पर्श तेरा।
तू ही तू बस तू ही तू तेरा ही नज़ारा चहुँ ओर
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