Saturday, January 18, 2014

देवदारू का सामिप्य


१ 
मैं उसे देखता हूँ 
जो लहर की तरह उठता है 
मेरे भीतर 
और मेरे देखने से 
सकुचा कर 
छुप जाता है 
मुझ में ही 

२ 

बाहें फैला कर 
प्रेम भरी मुस्कान में भीगा 
भेजता बुलावा 
स्वर्णिम मौन को 
आओ 
मैं अपनाऊं तुम्हें 
तुम मुझे अपनाओ 

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कलम मेरे हाथ में है 
अंगूठे और दो अंगलियों के बीच 
इस तरह धरी की 
सधी हुई गति कर पाये 

सुबह का झकाझक उजाला 
प्रसन्नता से भर रहा 
मौन को 

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(२-९-१००९)

यह नूतनता का आव्हान 
तुम्हारी महिमा का गान 
ओ अनंत करूणामय 
तुम सर्वत्र विद्यमान 

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दिखता है 
लौट कर 
जकड सकते हैं 
वही बंधन 
हो सकता है प्रारम्भ 
वही क्रंदन 
यदि देवदारू का 
सामिप्य भुला कर
फिर नीम-बबूल संग 
रगड़ खाने लगे मन 
(जून १, २०१३)

अशोक व्यास 
(संकलन ब्लॉग हेतु जनवरी १८, २०१४)

2 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

हर तत्व में स्पर्श तेरा।

vandana gupta said...

तू ही तू बस तू ही तू तेरा ही नज़ारा चहुँ ओर

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