अपने से बतियाना
कविता के साथ बैठ
यादों को सुलगाना
कभी बचपन में उतर जाना
कभी जवानी में ठहर जाना
उम्र के इस मोड़ पर जब
समीप होने लगे ढलान
इंसान टटोलता है
अपने सपनो का सामान
सीढियो पर रुक हुआ गान
बोझ सा शिकायती सामान
२
आखिर सब कुछ है अपने आप पर
अपने आरम्भ के आलाप पर
विस्तार का नहीं कोई छोर
अपने को बांधे अपनी ही डोर
जीवन बीतते बीतते
कुछ नया रचने, कुछ नया गढ़ने
कुछ नया लिखने, कुछ नया पढ़ने
कोई भीतर बार बार कसमसाता है
नूतन निर्माण के लिए उकसाता है
एक ढर्रे में चलते जाना नहीं सुहाता है
बार बार यह प्रश्न उभार आता है
अपने समय को बनाता हूँ मैं
या समय ही मुझ बनाता है ?
अशोक व्यास
न्यूयार्क, शनिवार, नवम्बर ५ २०१६