Tuesday, December 27, 2011

परम शांत आकाश में

 
तो फिर से
मुस्कुरा कर
देखा उसने
अपने चारो ओर
एक पावन परिधि को

एक शुभ्र घेरा
जैसे
माँ पार्वती ने शिव-सम्मती से
बना दिया हो
उसके चारों ओर 
गणपति स्वरुप मंगल-चक्र,
 
और फिर
मुस्कुरा कर
 ध्यानस्थ वह 
हो गया तन्मय
गुरूमय मौन से निखरे
परम शांत आकाश में



अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२७ दिसंबर २०११  
 
  

Monday, December 26, 2011

विराट का एक मौन आमंत्रण

 
लो
खुल आस्मां के नीचे
विस्तृत मैदान के बीच
खिल रहा है
ये जो 
संवित पुष्प
अपनी सौरभ से 
धरती के ओर-छोर तक पहुंचा रहा है
आस्था, शीतलता और
असीम में तन्मय होने की तरंग
 
इस अतुलनीय स्पर्श में
कोई-कोई 
भूल कर अपना-आप
खो देता है
सीमित इयत्ता
 
पर अधिकांश अपने
घर-गली-गाँव में मगन
 
पहचानते ही नहीं
विराट का एक मौन आमंत्रण
निकल जाता है
उनके आस-पास के
कण-कण को छूता हुआ
ऐसे
कि जैसे
कुछ हुआ ही ना हो
 
 
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका 
२६ दिसंबर २०११                

Sunday, December 25, 2011

जिसका नाम कृष्ण है

 
उस दिन
पेड़ की खोह में
धर कर पोटली कविता की
उतरा था
नदी में जब
नहीं जानता था
लौटते हुए
हर सांस में
प्रस्फुटित हो जायेगी कविता
और
भूल कर पेड़ की खोह में छुपी कविता
वह
पेड़ों की शाखाओं को
करने लगेगा अलंकृत
चिरजीवी कविताओं के उजियारे से
 
अब ऐसा सृजनशील वन हो गया है
उसका मन
जहाँ वृन्दावन के पवन के हर झोंके से
अगणित कवितायेँ दिखाई देती हैं
 
और
इन सब कविताओं के बीच
आज भी 
रास रचाता है
वह काव्य पुरुष
जिसका नाम कृष्ण है
 
 
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२५ दिसंबर २०११          
      

Saturday, December 24, 2011

पग पग उसका ही सत्कार

 
रसमय
तन्मय
चिन्मय मन
रमे राम में
निर्भय मन
अमृत धार
निमग्न हुआ जग
तुझमें घुल कर
अद्वय मन
 
 
आनंद के सुर ताल उजागर करता है
परम शांति का सार दिवाकर भरता है
किरण किरण में उसी छटा के दरसन है
पग पग जिसका सुमिरन किये संवरता है
 
 
 
बात पहुँची परदे के पार
प्राप्य पा गयी पुकार
द्वार-द्वार जो मुस्काए है
पग पग उसका ही सत्कार
 
 
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२४ दिसंबर २०११   
 
            

Friday, December 23, 2011

जो दरअसल खेलता वही है

ठहरते ठहरते भी
वह न जाने कैसे
कर लेता था
सारी दुनियां की सैर
जानता था
प्रकट-अप्रकट सन्दर्भ इतने सारे
पर
छलकता नहीं था कभी
अनंत सा घड़ा उसके ज्ञान का
सहज
पग पग पर
मगन किसी अदृश्य  लोक में
वह उतना ही कभी भी नहीं था
जितना दीखता था
काल और भौगोलिक सीमाओं से परे
हर मौसम में
वह अब भी
दिख जाता है  
आत्म-सखा की तरह
अमोघ आश्वस्ति और
अदम्य उत्साह का उपहार सौंप कर
जैसे बैठ कर
दर्शक दीर्घ में
देखने लगता है
खेल

जो दरअसल खेलता वही है
वो, जो उतना ही कभी नहीं रहा
जितना दीखता था
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२३ दिसंबर २०११            

Wednesday, December 21, 2011

सर्वसाक्षी चैतन्य

न जाने कैसे
छिड़ जाता है संतुलन
इन्द्र के पद से गिर जाता है राजा नहुष
कामना शची की हो
या
नई शती वाली पहचान की
कभी कभी
किसी अनाम क्षण में
डंस लेता है
सांप सीढी का सांप
 
पतन मन का
हुए बिना ही
किसी ऊंचाई से उतरने के
अपरिभाषेय अनुभूति
जकड लेती है जब
 
जाग्रत होता है
स्वर्णिम शिखर का
तीव्र आर्त स्मरण
 
शायद इसी तरह
झूले झुला-झुला कर
 अपनी तरफ
ध्यान बढाता है
वह एक सर्वसाक्षी चैतन्य
 
 
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२२ दिसंबर २०११
             

अभिव्यक्ति वृत्त के आलोक में

इस बार
वो नहीं था तैयार
मंच पर पहुँच कर
अभिव्यक्ति के अलोक वृत्त से
अपनी बात सुनाने को
सभागार भी खाली सा ही था
पर
किसी धार्मिक अनुष्ठान की तरह
मैंने धकेल दिया उसे मंच पर
और
माईक के सामने  
आँखें  मूंदे 
खडा हो गया वह
फिर मुस्कुराया
और निशब्द बोलने लगा
'वह जब मिल जाता है
फिर इस तरह अपनाता है
कभी रोम रोम गाता है
कभी पूरी तरह चुप हो जाता है
इस चुप्पी में 
यह जो सौन्दर्य बरसता है
इसे देखने के लिए
वो आँख बंद करनी होती है
जो इसके अलावा कुछ और ना देखे"
और फिर
उसका वहां
अभिव्यक्ति वृत्त के आलोक में
मौन खड़े रहना
न जाने क्यों
हम सबके लिए
एक विलक्षण अनुभव हो गया था
न जाने कब उतरा वो मंच से
न उसे पता चला
न हम सबको
अशोक व्यास
               २१ दिसम्बर २०११                   

Monday, December 19, 2011

बढ़ता जाए है तुमसे लगाव

मुग्ध
तुम्हारे खेल पर
हंस हंस कर
देखता हूँ अपने घाव
चोट 
जहाँ भी लगे
बढ़ता जाए है
तुमसे लगाव
 
 
उसके आने पर
इतनी रौनक लगी
 इक्कट्ठे हो गए लोग
इतने सारे,
पर मैं उसे
देख ही ना पाया
अपनी छोटी- छोटी 
उलझनों के मारे
 
 
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१९ दिसंबर २०११    
 

   
     
          

Sunday, December 18, 2011

अनुपम उपहार

ठीक समय पर
घंटी बजा कर
हर दिन
अपनी ओर से
लगा कर पुकार,
करने लगता हूँ
उससे मिलने
तरह तरह के
कर्म का श्रृंगार,
 
 
 
लगता यूं है इस बार
वो आ ही गया आखिरकार
पर छुप्पा छुप्पी के खेल से
सिखा रहा है अगोचर सार
 
 


नहीं दिखती दर्पण में
प्रसन्नता की ये उजियारी धार 
अंतस में धर गया है वो
जिसका अनुपम उपहार
 
 
 
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१८ दिसंबर २०११   



                

Saturday, December 17, 2011

अंतिम आलिंगन

 
एक बार और
जाते जाते
गले मिले दोनों
फिर अलग होकर
देखा एक दूसरे को
 
दोनों के चेहरे पर
छिटकी थी संतोष की चमक
 
दोनों मगन थे
आनंद में
 
इस बार 
दोनों के पास थी ताकत
विस्तार को पुकार कर
निराकार हो जाने की
 
इस बार
मिल कर 
 दोनों ने जान लिए थे
 गुप्त पथ
आतंरिक कोष के 
और
हो चले थे
मालामाल
कालातीत संपत्ति से
 
इस बार
ये अंतिम आलिंगन है
 ऐसा लगा दोनों को
क्योंकि
इसके बाद
चेतना के सूक्ष्म उजियारे पथ पर
शेष नहीं रहती 
आलिंगन द्वारा उसे अभिव्यक्त करने
या उसकी अनुभूति करने की कोई चाह 
जिसके बोध से
अर्थवान बन जाता है
हर आलिंगन

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१७ दिसम्बर २०११  
         

पुनर्जन्म




एक दिन अचानक
सब कुछ नया नया सा
जैसे हर अक्षर का विन्यास 
पहली बार उभर रहा हो मानस में
जैसे सीखने के लिए
शेष है अनंत पथ
और
यह आस्था भी
सहचरी हो चले सहज ही
की सीखने वाला भी
रूप है अनंत का
 
यह
सीखने-सिखाने का
रसमय खेल
एक दिन अचानक
यूँ नया हो सकता है
पुरानी सोच के साथ
मेल नहीं खता यह अनुभव
 
क्या इसी को
पुनर्जन्म कहते हैं?
 
 
 
अशोक व्यास
न्यू योर्क, अमेरिका 
१७ दिसम्बर २०११            

Friday, December 16, 2011

एक शांत साम्राज्य

ठण्ड से बचने के लिए
समेट लेना अपने को
और बात है
 यूँ छूने पर
कछुआ भी
समेट लेता है अंग अपने
पर
उसके सिमटने में
किसी बाहरी संवेदना का प्रभाव नहीं था
वह
सिमट कर संकलित हो रहा था
सघन हो रहा था
और
अपनी निश्चलता में
सुन रहा था
एक स्पंद
स्पंद
जो सुन्दरता के साथ
छिटका रहा था
गहन मौन का
एक शांत साम्राज्य
स्पंद
जिसमें मुखरित था
सारे जगत से 
ऐसा लगाव
जो बाहर की किसी भी क्रिया द्वारा संभव ही नहीं है
वह
सिमट कर आलिंगन कर रहा था
उस विस्तार का
जो दीखता नहीं पर है
और उनके द्वारा ही महसूस किया जाता है
जो गति में ठहराव
और
ठहराव में गति देख पाते हैं
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१६ दिसंबर २०११   
      

Wednesday, December 14, 2011

जिससे सब कुछ है

 
आज वो
विस्मित था
किरण के स्पर्श से
पूरी तरह स्वस्थ होकर
स्फूर्ति में जगमग
अपने सम्पूर्ण सौदर्य के प्रकटन पर
 
फिर छु गया उसे
अपना ही
अतुलित वैभव 
काल रेखाओं से परे
एक अनाम बोध
धर गया अक्षय आश्वस्ति
 
मगन अपनी मौज में
सांस लहर पर 
बहते बहते
उसे स्मरण थी
अपनी चिर स्थिरता
 
परिपूर्णता से ओत-प्रोत
अपनी जाग्रत उपस्थिति में
कर रहा था स्वीकार वह
दृश्य-अदृश्य को 
इस तरह जैसे
सबमें होकर भी
सबसे परे हो
उसमें कुछ ऐसा
जिससे सब कुछ है 
 
 
 
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका 
१४ दिसम्बर २०११              

Tuesday, December 13, 2011

वो जीत गया

 
कल और आज के बीच
दिन तो एक ही बीता 
पर आज
 कुछ नया सा लगा 
दर्पण के सामने


 
आत्म-सौन्दर्य में नहाई मुस्कान
जिस पर किसी और का नहीं जा सकता ध्यान
पर मुझे दिखी एक क्षण अपनी आँखों में उसकी पहचान
जिसका साँसों में चलता रहता है गुणगान
 
 
कल और आज के बीच
दिन को एक ही बीता
पर
कितना कुछ बीत गया
और यूँ लगता है
जिसे जीतना चाहिए था
वो जीत गया
 
   
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका  
१३ दिसम्बर २०११
 
        

Sunday, December 11, 2011

कहीं अकेले में

 
अकेला पर्वत
चुपचाप मंदिर
सूखे पत्ते भाग भाग कर
महादेव की पहरेदारी करते
हवा सनसना कर महीन भक्ति गीत सुनाती
अपनी साँसें सहेज कर
जिस क्षण वह
प्रविष्ट हुआ मंदिर में
नगर के कोलाहल से दूर
सहसा झुक गया शिवलिंग के सामने
किसी और को दिखाने के लिए नहीं
अपनी आदत से भी नहीं
बस
एक भाव के कारण
जो उसने 
 पहले कभी नहीं जाना था
 
तो क्या
ईश्वर जब अपना सम्बन्ध जताते हैं 
                                                         पहले हमें कहीं अकेले में बुलाते हैं


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१० दिसंबर २०११   
             

Saturday, December 10, 2011

तुम्हारी नित्यनूतन महिमा


 
आज फिर
छत पर बिछे हुए उजाले में
ढूंढ रहा हूँ
तुम्हारा गुप्त सन्देश
इन आँखों से
जिन्हें रोशन करता है
तुम्हारी ही कृपादृष्टि का अलोक
 
आज फिर
हंस की तरह
चुग रहा हूँ 
आनंदामृत का स्वाद दिलाते
अनुभूति के ये मोती
जिनके प्रकटन में
मुखरित होती है
तुम्हारी
नित्यनूतन महिमा
 
 
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१० दिसंबर २०११          
    

Friday, December 9, 2011

काल की हथेली पर

इससे पहले की 
समेट ले
सूरज अपनी सारी किरणें
इस बार
तैयार है
ये सौगात
जो भेजनी है
किरणों के साथ
 
मेरे हिस्से का उजियारा
इस बार
छुपाया नहीं
सजा दिया है
काल की हथेली पर
 
प्रसन्नता से
सौंप रहा हूँ
अपना सब कुछ
इस बार 
तुम्हें
ओ भुवनभास्कर
 
इस तरह हो गया हूँ
शुद्ध आलोक में लीं
जैसे हो ही गया
तुम्हारी अखंड चेतना में विलीन
 
 
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
९ दिसंबर २०११               
सूर्य किरणे समेट

Thursday, December 8, 2011

छू गया धरती- आकाश

उसने
बिना किसी विचार के
बस खोल दिया अपना आप
उंडेल दिया आत्मरस
देखने दिखाने के लिए
अनंत का सौन्दर्य
निशब्द फ़ैल गया
केंद्र जो था
नित्य परिवर्तनशील
अपनी सहज, स्थिर आभा के साथ
छू गया धरती- आकाश
 
 
अशोक व्यास
देक ८ २०११          
    

Wednesday, December 7, 2011

मौन शिखर पर

 
मौन शिखर पर
शांत मगन वह
आनंद निर्झर सुन मुस्काए
स्पंदन
उसके होने का
मुझसे हर एक प्रश्न भुलाए    

सौंप दिया मन
स्वयं प्रकाशित आत्म-सखा को,
  अब कहना-सुनना छूटा पर
धार सार की बह बह आये
 
 
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
७ दिसंबर २०११   
 
 

 
 
 

Tuesday, December 6, 2011

बदलाव का छल



यह
जो अनदेखे स्थल में
संचरित हो सकता है
बोध उसकी उपस्थिति का
इस धारा को आवाहित कर
जाग्रत कर पाने की आश्वस्ति
जब 
अभ्यास और कृपा से
अपने भीतर
संभल जाती है
यूं लगता है
दुनिया बदल जाती है
 २
सचमुच होता ये है
कि
मन में उतरता है निरंतर
अनवरत आनंद का ऐसा स्थल 
कि 
हमें छेड़ नहीं पाता फिर
किसी भी बदलाव का छल
इस भाव धारा
को लिखा-पढी से
नहीं कर सकता कोई किसी के नाम
जगाना होता है इसे
कभी शब्द सहेज कर
कभी गुरु के मौन को थाम
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
६ दिसंबर २011   


Monday, December 5, 2011

एक अमिट पहचान

 
 
किसी को भी
ठीक से हम तब देख पाते हैं
जब भागना छोड़ कर 
थोडा ठहर जाते हैं     


 
कई बार
एक के बाद दूसरी क्रिया
जो हम
स्वयं तक पहुँचने के लिए सजाते हैं
उसे पूरा कर पाने के संतोष
से इस तरह बंध जाते हैं 
कि 
अपनी स्वतंत्रता को भूल जाते हैं
शायद इसीलिए
अच्छे खासे मनुष्य
कोल्हू के बैल कहलाते हैं
 
 
नूतनता के आगमन के लिए
जाने हुए को
कुछ इस तरह अपनाना होता है
की 
नियम अपना कर 
जो ढर्रा बनता है
उसे कभी कभी स्वयं ही मिटाना होता है
 
 
शायद  इसीलिये
सृष्टि में
स्थिति के बाद लय का
नित्य स्थान है 
इस तरह 
 मिटने वाले में
झिलमिलाती एक
अमिट पहचान है 


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
५ दिसंबर 2011 

Sunday, December 4, 2011

शाश्वत चलचित्र

(चित्र- अशोक व्यास)


वो अब नहीं है
न उसकी मुस्कान
न वो रसभरी बातों के टुकड़े
न वो आत्मीय ऊष्मा का निराकार स्पर्श
न वो उलाहने
जो सन्दर्भ से हट कर 
बन गए एक सेतु की तरह
 
सेतु
जिस पर चल कर
अब भी आ जा सकती हैं
उसकी स्मृतियाँ
 
हमारा होना कितना अस्थायी है
ये जान कर भी
जान नहीं पाते ना
 
कुछ तो खेल सब कुछ बनाने वाले का है
पर ज्यादातर खेल तो हम ही बनाते हैं
 
और फिर
परिचय के खेल में उलझ जाते हैं
अपेक्षाओं के खिचाव में फंस जाते हैं 
चिपकाये हुए परिचय के परे अपने अस्तित्त्व को
अनदेखा कर
सिमटते हैं
सिमटे सिमटे ही शायद किसी दिन लुप्त हो जाते हैं
 
पर जब किसी के न होने का स्थल छू कर आते हैं
नए सिरे से खुदको जानने का उत्साह जुटाते हैं
सोच के सहेजे हुए सामान के मोह में फिर उलझ जाते हैं 
क्षितिज तक पहुँचने की दौड़ से हट नहीं पाते हैं
 
हमें जिस दौड़ के लिए बनाया गया था
कई बार तो उस ट्रैक तक पहुंचे बिना खेल से हट जाते हैं  

ये कविता
संवेदना या सांत्वना नहीं
बस एक आँख के खुलने पर
उतरा हुआ छोटा सा चित्र है

जो कोइ ऐसे चित्रों की श्रंखला देख पाता है 
उसे साँसों में शाश्वत चलचित्र देख जाता है
 
 
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
४ दिसंबर २०११   

 
 

       

Saturday, December 3, 2011

प्रेम भाव से मंगल-मंगल


 
एक अचल है कितना चंचल
उसे देख कर, सब कुछ मंगल
 
जान जान कर बिसराए जग
प्रेम भाव से मंगल-मंगल 

यूँ ही मान कर बैठ न जाना
बड़ा अनूठा है हर एक पल
 
 
उज्जवल हर पल
हर पल उज्जवल
 
गुरु चरणों का आश्रय लेकर
वृन्दावन है मन का जंगल
 
कालियमर्दन के प्रताप से
करूणामयी काल की कलकल    
 
 
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
३ दिसंबर २०११   
 
 
 
 
  


 
 

Thursday, December 1, 2011

माँ वहां तक है भीतर मेरे

 
सूर्योदय के साथ
नए दिन के आगमन की खबर तो मिल जाती है
पर सूर्योदय के होने का मर्म
हर दिन मेरी माँ मुझे बतलाती है
 
माँ ना जाने कैसे
किरणों के बीच में चलती परियो से मेरा परिचय करवाती है
मेरे भीतर
अदृश्य जगत की संभावनाएं दिखा कर मुझे विस्मित कर जाती है
 
माँ वहां तक ही नहीं
जहां वो पहली बार इस जगत से सम्बंधित होने का भाव मुझमें जगाती है
माँ वहां तक है भीतर मेरे
जहाँ तक साँसों की ये श्रंखला चलती जाती है
या शायद उसके बाद भी
माँ ही साथ निभाती है
और जिसे-जिसे माँ की याद आती है
उसे माँ मिल जाती है


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१ दिसंबर २०११ 
 

सुंदर मौन की गाथा

   है कुछ बात दिखती नहीं जो  पर करती है असर  ऐसी की जो दीखता है  इसी से होता मुखर  है कुछ बात जिसे बनाने  बैठता दिन -...