उसने बाहें फैला कर
सहज ही
नाप दिया विस्तार जगत का
इतना सारा
पर इतना ही
हाँ इतना ही है विस्तार जगत का
जितना समा जाए तुम्हारी बाँहों में
अपनी बाँहों में
अनंत को अलिंगंबद्ध करने के लिए
बस इतना ही करना है
छोड़ दो उसे
जो तुम्हारी बाँहों के फैलाव को
सीमित कर
अंतरहित चेतना पर
खींचता रहता है
लकीर सीमाओं की
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
7 जून 2012