Sunday, October 20, 2019

सुंदर मौन की गाथा


 

 है कुछ बात दिखती नहीं जो 
पर करती है असर 

ऐसी की जो दीखता है 
इसी से होता मुखर 

है कुछ बात जिसे बनाने 

बैठता दिन -रात अपने साथ 
है यह बात जो बनाती 
बिगाड़ती सारे हालात 

इस बात को अभी 
अभी गोद में खिलाता 
जब तुमसे बतियाता 
सारा जग जगमगाता 

प्रसन्नता का झरना 
बह बह आता 
मुस्कान से फूटती 
सुंदर मौन की गाथा 

सुन रही है साँसे तुम्हारी 
ये विस्मय मदमाता 
जिसके स्पर्श से 
कण कण खिलखिलाता 

है कुछ बात दिखती नहीं जो 
कौन इसे बनाता 
और वह जो इस छुपाता 
क्या है मेरा तुम्हारा 

इस अदृश्य उपस्थिति से नाता 


 प्रश्न श्न यूँ ही उठाता 


जैसे कोइ ढलान पर दौड़ता जाता 
औ स्वयं को खोकर 
सब कुछ पा जाता 

अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका 
२० अक्टूबर २०१९ 

Monday, January 28, 2019

पाँच शेर - सवा शेर की तलाश में

एक मैं निश्चल 




मुझे अब भी तुम्हारी 
याद आये है मुसलसल
नहीं सूखा मेरे दाता,
 मेरी आँखों का ये जल

नहीं समझा जगत को 
मैं तो अब तक 

बहूँ भावुक नदी, 
जग समझे पागल 


मैं सब कुछ लाँघने 

तैयार होकर 
ठिठक जाऊँ 
जब आए उड़ने का पल 

मैं इस पल में 
दिखाई दे रहा पर 
है साँसों में 

युगों - युगों की हलचल 


ये बस्ती रात दिन भागी 

मगर पहुँची कहाँ है 
देखो पहुँचा हुआ हूँ 
एक मैं निश्चल 

-
अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका 
२८ जनवरी २०१९ 


Friday, January 19, 2018

वहाँ जो मौन है सुंदर























वह जो लिखता लिखाता है
कहाँ से हमारे भीतर आता है

कभी अपना चेहरा बनाता
कभी अपना चेहरा छुपाता है

वह जो है शक्ति प्रदाता 
कैसे कैसे खेल रचाता है

इस खेल से मेरा क्या नाता
कुछ समझ में नहीं आता है

श्रवण से जो भाव जाग जाता
उसे लेकर मन दौड़ता जाता है

जो विस्तार सुन कर दौड़ लगाता 
वो सीमाओं के पार चला जाता है

मुक्ति की झलक में मुग्ध हुआ
शुद्ध आनंद में रम सा जाता है

वहाँ जो मौन है सुंदर, रसमय
उसे कौन शब्दों में बाँध पाता है

वहाँ समय भी एकत्व में डूबा
अपने विभाजन को भूल जाता है

 आदि-अंत रहित से एकमेक होने की
जो सर्वकालिक, सर्वव्यापी गाथा है

उसमें जो पूरी तरह रम जाता है
वो क्षुद्रता से परे मुस्कुराता है

उसकी मुस्कान में अनंत रश्मियों का
निःसंग  आलोक झरता जाता है

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
शुक्रवार, १९ जनवरी २०१८

Wednesday, January 17, 2018

आहटों की टोह लेता ...


आहटों की टोह लेता
राह में
कब से डटा हूँ
रुक गया था
बढ़ते बढ़ते
रुकते रुकते
मैं घटा हूँ

बरसता बादल
कहाँ है
लुप्त क्यों
जो कह रही थी
मैं हूँ बदली
मैं घटा हूँ





एक निर्जन वन
बना है नगर सारा
सब हैं लेकिन
शून्य सा क्यूँ
सब को सब
अच्छा लगे पर
मैं क्यूँ इतना
अटपटा हूँ

दौड़ना तय
था सभी का
भागते दीखते
मनुज सब
ट्रैक से मैं
क्यों हटा हूँ



शांत वन में
मगन मन में
कैसी नीरवता सुहानी
चुप अनूठा 
जोड़े सबसे
जबसे मैं
सबसे कटा हूँ 

आहटों की टोह लेता
राह में
कब से डटा हूँ
रुक गया था
बढ़ते बढ़ते
रुकते रुकते
गंगा हूँ
शिव की जटा हूँ

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१७ जनवरी २०१८ 

Thursday, January 4, 2018

सच्चा हमराज़



कविता : क्यूँ  किसी से होते नाराज़ 

कविता ने प्रेम से बता दिया फिर आज
 क्यूँ किसी से हो जाते हैं हम नाराज़ 

नाराजगी में तो है बंधन, मुक्त मन हेतु 
करें अपनेपन प्रसूत अपेक्षा का इलाज 

सच्चा आनंद तो अनंत की परवाज़ 
नहीं वो कभी किसी का मोहताज 

मिलने मिलाने, खोने पाने से परे 
शाश्वत सुर सुनाये श्रद्धा का साज

नित्य विस्तार अनुभूति दिलाए जो 
वह निरंतर साथी ही सच्चा हमराज़ 


दोहे 

सुमिरन रस अनमोल धन, तन्मयता की तान 
गुरु कृपा से सुलभ हो, आत्म सुधा रस पान 

भज मन गंगा अवतरण, कृपा नदी विश्राम 
करूणा श्री गुरुदेव की शुद्ध करे मन-प्राण  

अमृत की इस प्यास से, ज्योतिर्मय दिन-रैन
सजग सतत यह प्यास भी सहज दिलाए चैन 

शास्त्र और गुरु संग हैं, नहीं रहा कुछ शेष 
रसमय यह हरिकृपा भी, बदले कितने भेष 

प्रकट हुआ आँगन मेरे, दीप्त अनंत उजास 
मित्र सुदामा पा गए,  ज्यों वैभव में वास  
 
- अशोक व्यास
न्यूयार्क, ४ जनवरी २०१८ 

Monday, December 11, 2017

कविता





















कविता
न नारा
न विज्ञापन
कविता
सत्य खोजता
मेरा मन

कविता
न दर्शन
न प्रदर्शन
कविता
अनंत से
खेलता बचपन

कविता
चुपचाप चलता
मधुर जीवन
कविता
मेरे भीतर
मेरा आगमन

कविता
मौन मुखरित
ममत्व प्रसव 
शिखर पर
सुरभित
नव नव उत्सव
-अशोक व्यास
दिसम्बर ११, २०१७
न्यूयार्क, अमेरिका

Thursday, November 2, 2017

आनंदित निर्झर




छम छम बरसे
प्रेमामृत सा
खिला करूण
अलोक अपरिमित
मौन मधुर
झीना झीना सा
सरस सूक्ष्म 
आनंदित निर्झर
तन्मय बेसुध 
लीन.... 



अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका 
नवम्बर १ , २०१७ 

Thursday, May 25, 2017

छोड़ कर स्वरुप अपना




उतरती है गंगा
भगीरथ के बुलावे पर
बहती छल छल
करूणा सुन कर तीव्र पुकार
उद्धार की


पीढ़ी दर पीढ़ी
अनुस्यूत
एक भाव
एक सात्विक सातत्य
सहेजता
सम्बन्ध समग्रता से
 खिल  जाता सौंदर्य शाश्वत का

नदी बह रही
अब
छोड़ मर्यादा
तट की

निश्चिंत है
छोड़ कर स्वरुप अपना
आ मिली
सागर में
कभी कभी खो देना ही
होता है
पा लेना सचमुच


बाहें फैला
पकड़ रहा
बादलों को

खिलखिला कर स्वीकारता
पराजय अपनी

हो गया
अंकित
भीगापन
अलौकिक हृदय पर


जुड़ता है
बिना जोड़े
मिले उसे
जो स्वयं को छोड़े
इसी की महिमा
गाये गगन
सुन कर मगन
झूमें पावन
सौंप इसे
तन - मन
पा लिया
 अनंत आंगन

२५ मई २०१७
अशोक व्यास
अरुणाचल आश्रम, न्यूयार्क


मधुर मधुर हो अपना जीवन





उतरती है गंगा
भगीरथ के बुलावे पर
बहती छल छल
करूणा सुन कर तीव्र पुकार
उद्धार की


पीढ़ी दर पीढ़ी
अनुस्यूत
एक भाव
एक सात्विक सातत्य
सहेजता
सम्बन्ध समग्रता से
 खिल  जाता सौंदर्य शाश्वत का

नदी बह रही
अब
छोड़ मर्यादा
तट की

निश्चिंत है
छोड़ कर स्वरुप अपना
आ मिली
सागर में
कभी कभी खो देना ही
होता है
पा लेना सचमुच


बाहें फैला
पकड़ रहा
बादलों को

खिलखिला कर स्वीकारता
पराजय अपनी

हो गया
अंकित
भीगापन
अलौकिक हृदय पर


जुड़ता है
बिना जोड़े
मिले उसे
जो स्वयं को छोड़े
इसी की महिमा
गाये गगन
सुन कर मगन
झूमें पावन
सौंप इसे
तन - मन
पा लिया
 अनंत आंगन

२५ मई २०१७
अशोक व्यास
अरुणाचल आश्रम, न्यूयार्क


चल निश्छल निश्छल निश्छल चल 
तू दीन दुःखी का बन सम्बल 
बन पावन तू, मन भावन तू 
ज्योतिर्मय बन सुखप्रद शीतल 

चल निश्छल निश्छल निश्छल चल 
ो हिमगिरि सूत, तू गंगा जल 
रस प्रेम और आनंद बहा 
संतोष लुटा पथ उन्नत चल 

अशोक व्यास 
मई २०१७ 
न्यूयार्क, अमेरिका 

Friday, March 31, 2017

मंज़िल से दूर















न जाने क्यूँ
हो रहा कुछ ऐसा बार बार
जा नहीं पाता
एक सीमित घेरे के पार

अवसरों से हाथ मिलाता हूँ
फसल नई उगाता हूँ
पर फिर एकाकीपन में
चुप चाप खड़ा हो जाता हूँ

अपेक्षाओं के नए नए तीर चलाता हूँ
निशाने पर खुदको ही खड़ा पाता हूँ
घायल होते जाने होने का दर्द जारी
आंसू छुपा कर फिर फिर मुस्कुराता हूँ

अब मंज़िल से दूर रह रह कर
इस तरह कसमसाता हूँ
 घर से बाहर एक नया कदम
उठाने में घबराता हूँ

न जाने क्यों
हो रहा बार बार
फिसलता जाए है
मुझसे विस्तार
ये जड़ता की मार
ये मूढ़ता का वार
सब लगे  निस्सार
कहो कैसे पाऊं सार


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका

सुंदर मौन की गाथा

   है कुछ बात दिखती नहीं जो  पर करती है असर  ऐसी की जो दीखता है  इसी से होता मुखर  है कुछ बात जिसे बनाने  बैठता दिन -...