तब
मिलने लगते हैं सिरे,
बैठ जाता है
तारतम्य
एक घटना का
दूसरी घटना से
प्रकट होती है
क्रमबद्धता
एक अद्रश्य सूत्र पर सजी हुई,
संतोष सा
उमड़ आता है
हर क्षण से
और
कृत कृत्यता का भाव लिए
ढूंढता हूँ मैं उसे
जिसके प्रति
अर्पित करून
अपनी कृतज्ञता
और बस
पसर जाता है
धरती के इस छोर से उस छोर तक
एक मधुर मौन
अशोक व्यास
६ जुलाई २०११ की कविता
७ जुलाई २०११ को सस्नेह प्रस्तुत
(हर दिन कविता का यह kram
भारत यात्रा के दौरान लगभग एक महीने
अद्रश्य रूप में जारी रहने की सम्भावना hai
आप सबको नमन और उसी कृतज्ञता का अंश
जिसका संकेत इस कविता में hai
जय हो)