Monday, February 28, 2011

ओ विराट व्यापारी


मेरे पास इस पल
जितनी भी दौलत है
तुमसे ही आयी है

और  तुम्हारे नाम करते हुए
ये बरखा की बूंदे
ये निर्मल मौन भोर का
ये कृतज्ञतापूर्ण उल्लास 
और
आनंद का अमृतमय स्वाद

बढ़ रही है मेरी दौलत
कैसे व्यापारी  हो तुम
एक बीज लेते हो
पूरा वृक्ष देते हो

ओ विराट व्यापारी
मुझे भी सिखला दो
ये 'देते रहने की समझदारी'

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
सोमवार, २८ फरवरी २०११   
       

Sunday, February 27, 2011

मुक्ति का परिचय

 
लौट कर
अब शायद
नहीं पहुंचा जा सकता उस गाँव तक
 
वैसे वहां अब एक 'बड़ी' सड़क है
चुप्प से खेतों के बीच
अचानक बज उठता है
किसी का 'मोबाइल'

बच्चे सड़क पर कम
कंप्यूटर पर अधिक खेलने लगे हैं
 
वो सब तकनीकी रंग
जिन्हें हमने जरूरी माना था
संसार से जुड़ने के लिए 
 
इस सबके आ जाने के बाद
ना जाने क्यूं
जरूरी ना रहा 
गाँव की आत्मा से जुड़ना
 
हो गया है 
कुछ ऐसा
की अब किसी को
आस्मां की तरफ देखने की
फुरसत भी नहीं है
 
सुविधाओं के साथ
मुक्ति की सीढियां चढ़ने की आशा रखने वाले
हम
मुक्ति का परिचय भी भूलने लगे हैं
 
लौट कर
ढूंढना चाहता हूँ
अपने गाँव में
मंदिर के अहाते में
वो जगह
जहाँ हम बच्चे 'सूखे पत्ते और फूल छुपा कर रखते थे
शायद किसी दिन
'गाँव की आत्मा के स्पंदन' भी
रख दिए होंगे
वहीँ-कहीं
अनजाने में
जिनसे
मिल जायेंगे
उस गाँव के बीज
फिर से जिसका हिस्सा बन पाने की चाह
सारे जीवन की उपलब्धियों से
अधिक मूल्यवान लग रही है
इस क्षण
 
अशोक व्यास
अमेरिका
रविवार, २७ फरवरी 2011  
     
       

 
         

Saturday, February 26, 2011

एक सुन्दर संतुलन


सम्भावना
समन्वय के शिखर की
दिखा कर
करता है स्वागत वह
कर्मभूमि पर
सिखलाता है
संतुलन
स्वीकरण और प्रतिरोध के बीच

कलात्मक प्रतिक्रिया
हर स्थिति में
हो जाती है सहज
अपना कर उसे


यह एक अद्भुत
सघन शांत स्थल सा
सृजन  बिंदु
हो गया है प्रकट
भीतर मेरे

करता है प्रसार प्रेम का
हर दिशा में

इस बिंदु का
आधार है जो
सौंप कर उसे
अपना सर्वस्व 
अब मैं
कर्म के द्वारा
देखना चाहता हूँ
एक सुन्दर संतुलन
जिसे साँसों में बैठ कर
सिखला रहा है वह


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२६ फरवरी २०११
    

          

Friday, February 25, 2011

अस्तित्व दीवारों का


ये किसकी व्यवस्था  है
की
बाहर रहता है सूरज
और
सारे जगत में 
फैलते उजियारे से परे 
अपने बंद कमरे के अँधेरे में
रह सकते हैं हम

ये किसका निर्णय है
की बंद रहें खिड़कियाँ-दरवाजे
कट कर
बाहर की हवा से
अपने आप में सिमटे
दोहराते रहें हम
वो कुछ बातें
जिनके गंध
बैचैन करती है हमें

ये कौन है
जो उठा कर हमारे हाथ
खुलवा देता है
हमारे ही घर की खिड़कियाँ
और
बादलों के नयी कलाकृति
का पारदर्शी संगीत
अनायास
कुछ नया रच देता है
हमारे भीतर 
ऐसा
की मिटने लगता है
अस्तित्व दीवारों का


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
                  शुक्रवार, २५ फरवरी २011             

Thursday, February 24, 2011

जितना बहुमूल्य है जीवन





कविता को नहीं
स्वयं को पकड़ता हूँ
किसी नए कोण से
पहुँचता हूँ अपने तक
किसी नए द्वार से

विस्मय का 
एक रोशन सूराख
दिखलाता है
मेरे कुछ अनदेखे हिस्से मुझे

पहचान की एक नयी सीढ़ी पर
चढ़ कर पुलकित होता

और अपने किसी
मार्मिक हिस्से का स्पर्श कर
लौट आता
वहां
जहाँ से शुरू होती  है
एक नए दिन के साथ
खुद का नया रिश्ता पकड़ने की यात्रा

भीतर दिखती है जो
एक झलक
अपनी अनंतता की
सुबह सुबह
शाम तक 
विस्मृत हो जाती है अक्सर

यह एक चक्र सा
चलता है जो अनवरत
इसमें
विस्मृति का भी रचनात्मक योगदान है
तभी तो हर दिन
स्वयं को छू लेने के लिए
नए नए द्वार ढूंढता हूँ
और 
बार बार अपने विस्तार के प्रति
आश्वस्त होता हूँ

इस आश्वस्ति को
न ख़रीदा जा सकता है
न बेचा जा सकता है
पर ये बहुमूल्य है उतनी
जितना बहुमूल्य है जीवन


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
गुरुवार, २४ फरवरी 2011          
               

Wednesday, February 23, 2011

सब कुछ हो जाता है आसान




जो भी है
अर्जित, संचित, सुरक्षित
सहेजा हुआ
अब तक

वो सब जो
नापा जा सकता है
किसी देश की मुद्रा में

और वह
जो देखा जा सकता है 
किसी की भाव-भंगिमा में

और वह भी
जिसे ना कोइ देख पाए
न पहचान पाए
पर जिससे संतोष झरता जाए

यह सब
आधार व्यवहार के
और स्वयं से प्यार के
टिके हुए हैं
एक सूक्ष्म दृष्टि पर

इसे बचाने की तरफ
जो दे पाता है ध्यान
उसके लिए 
सब कुछ हो जाता है आसान

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
               बुधवार, २३ फरवरी 2011        

Tuesday, February 22, 2011

कई जन्मों का सम्बन्ध





उसके द्वार पर
उजियारे का उत्सव
आनंद का उमडन
बिना जाने  ही
रूप बदल जाता मेरा
न जाने कैसे
अतिथि की भूमिका छूट जाती
रंग-बिरंगे उल्लास में भीगा
नृत्य करती धडकनों के साथ
अपार प्यार के ज्वार पर सवार
करने लगता अगवानी 
मिलता गले
आगंतुकों के
जैसे सबके साथ
कई कई जन्मों का सम्बन्ध है मेरा

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
मंगलवार, २२ फरवरी २०११            

Monday, February 21, 2011

इस तरह देखें स्वयं को








लो फिर गिर रही है बर्फ रूई के फाहों सी
उजली है, जब तक ऊपर-ऊपर है
गिरने के बाद होने लगेगी काली

तय है बर्फ का गिरना तो
पर हम बच सकते हैं गिरने से
रह सकते हैं उन्नत
उसका हाथ थाम कर
जो हमें बनाने और मिटाने का खेल बनाता है







फ्रीज़ खोल कर
बार बार देखना
शायद कुछ ऐसा पदार्थ
कर ले आकर्षित
जो पहले दिख ना पाया हो

रचनात्मक चिंतन
देखे हुए को फिर से
देखते हुए
देख लेता है
कुछ अनदेखा
और
देखने मात्र से
हो जाती है तृप्ति

सारा जीवन
देखना सीखने
और इस अभ्यास में लग जाता है
की इस तरह देखें स्वयं को
की कभी अधूरे न लगे खुदको


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
सोमवार, २१ फरवरी २०११
        

 

Sunday, February 20, 2011

बिना किसी पूर्वघोषणा के


(चित्रकार - प्रत्युष व्यास )
(1)
एक चेहरा
चलती गाडी में
खिड़की के शीशे पर
बनाया था
बेटे ने

बाहर की ठण्ड
और अन्दर की ऊष्मा ने
सुलभ करवा दिया था एक
कैनवास सा

और ये जानते हुए भी
की यात्रा पूरी होने से बहुत पहले ही
मिट जाना है ये चेहरा
हमें अच्छा लगा था
अँगुलियों की तूलिका से 
कुछ नया रचने की वृत्ति का
इस तरह प्रकट होना

   

(2)
अब मेरे पास
नहीं है शेष
कुछ भी नया
कहने को तुमसे
दोहरा भर रहा हूँ
पुनर्व्यस्थित कर
वह सब
जो कहा जा चुका है
पर जिसे कह कर भूल गया हूँ मैं
और जिस सुन कर भूल गए हो तुम

स्मृति
पुराने को नया 
और नए को पुराना करने का खेल भी
खेलती है
बिना किसी पूर्वघोषणा के
और हर बार
हमें लगता है 
की हम स्मृति से जीत जाते हैं

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
                   रविवार, २० फरवरी २०११             

Saturday, February 19, 2011

सूर्य की उजियारी गोद




अभिव्यक्ति की छटपटाहट नहीं
उछलन है
आनंद की रसमय धारा का
शब्दों का हाथ पकड़ कर
धर रही है
उनकी हथेली पर
अपने कुछ चिन्ह
खेल खेल में


सूर्य की उजियारी गोद 
बैठ कर 
सुरक्षित मोद में       
अब बाँट लेना चाहता हूँ
तुम्हारे साथ
यह
स्वर्णिम मौन



अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
शनिवार, १९ फरवरी २०११      

Friday, February 18, 2011

जब मैं नहीं होता हूँ


पहेलियाँ 

मेरे किये से नहीं
मेरे होने से होता है
और
मैं तब होता हूँ
जब मैं नहीं होता हूँ


सुरक्षित रहने की चाहवाले
मिट जाते हैं
और
वो
जो
अपने से कुछ बड़ा, गरिमामय, विस्तृत विस्मय 
सुरक्षित रखने के लिए
अपनी सुरक्षा का विचार तक भूल जाते हैं  
वो हमेशा सुरक्षित रह जाते हैं

           


उसके साथ
सब कुछ स्पष्ट, सरल, सुन्दर, प्रेममय
आनंद से परिपूर्ण

उसका साथ
मुझे अनायास ही
रसमय, परिपूर्ण बना देता है

अगर जो कुछ है
बस उसके साथ के 'बोध का खेल' है
तो फिर 'मैं' क्या हूँ?

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
शुक्रवार,१८ फरवरी 2011  

Thursday, February 17, 2011

एक क्षण में शाश्वत की झलक



"लो हूँ मैं
इस क्षण
पूरी तरह उपस्थित
ना पीछे का कोई चिंतन
ना आगे की कोई चिंता

जो है
जैसा है
स्वीकार कर सबको
प्रस्तुत हूँ
अपना वैभव लुटाने"

झूठी घोषणा करके
देखना लगा इसका प्रभाव
और
रख कर इसे प्रार्थना की थैली में
सोचना लगा
शायद किसी क्षण 
हो ही जाए सच
मेरा इस तारा
पूरी तरह 
अखंडित होना


कविता नहीं
इस क्षण के साथ
मेरे बहुआयामी सम्बन्ध का
एक शब्द चित्र है

कभी यूं होता है कि 
कविता 
एक क्षण में शाश्वत की झलक
दिखलाती है
इस तरह
धीरे धीरे
कविता मुझमें से प्रकट होकर
मुझे गढ़ती जाती है 
   

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१७ फरवरी २०११   

            

Wednesday, February 16, 2011

हम बेहतर हैं मेंढक से

 
कुएं का मेंढक
टर्र-टर्र करता
माप लेता विस्तार 
अपने संसार का
एक छलांग में

बेहतर है वो हमसे
इस अर्थ में 
कि जानता है
जाने हुए संसार का पैमाना

हम तो
जितना जानते हैं
उतना भूल जाते हैं
हर दिन
नई तरह से
छलांग लगाते हैं
जहाँ से चलते हैं
वहां लौट आते हैं
फिर किसी दिन
प्रयास करने को
निरर्थक जान कर
जहाँ हैं
वहीं जम जाते हैं
 
 इस तरह 
अपने-अपने कुएं में
बीतते जाते हैं
बाहर तो
ना मेंढक निकलता है
ना हम निकल पाते हैं

पर इस अर्थ में
हम बेहतर हैं मेंढक से
कि जब जाग जाते हैं
हर सीमा को लाँघने की सामर्थ्य
का अनुग्रह पाते हैं

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
बुधवार १६ फरवरी २०११


Tuesday, February 15, 2011

करवट स्थितियों की


हर दिन
अपने को 
किसी ना किसी बात के लिए
क्षमा कर
जाग्रत रखता हूँ प्रसन्नता

हर दिन
किसी कसक को
स्वीकार्य माधुर्य के नए वस्त्र
पहना कर
सहेजता हूँ शांति
कांटे की तरह 
चुभती स्मृतियों की चुभन को 
कम कर देता है,
पावन प्रवाह
यह गंगा जल सा
बहता है जो अंतस में


देता है आश्वस्ति
करवट स्थितियों की बदल सकता है
मन तुम्हारा
उस दृष्टि के साथ मिल कर
जो बंधती नहीं है
नाम और रूप में

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
मंगलवार, १५ फरवरी 2011


Monday, February 14, 2011

प्यार की कविता


अब जिस मोड पर
आ पहुंचा है प्यार
उसे अभिव्यक्ति की
नहीं है दरकार

चुचाप कर देता 
मौन का श्रृगार
दे देता हलचल में
अडिग आधार
 

एक वो रंग थे 
प्यार के
जब 
पल-पल
आश्वस्ति की रहती थी प्यास
अब
वह पड़ाव है
जहाँ संशय नहीं
साथ हैं बस
श्रद्धा और विश्वास


एक वो दिन
जब साथ रहे
व्याकुलता, बैचेनी और तड़पन
अब प्यार ऐसा 
कि आनंद का
अनवरत आलिंगन


ना जाने
मैं प्यार में नहाया
या प्यार ने
मुझसे कुछ पाया
कुछ ऐसा
जो अनिर्वचनीय है
निरंतर रहती है
जिसकी
स्निग्ध, शीतल छाया


एक वो दिन
जब प्यार की कविता
फूटती थी
रस्सी छुड़ा कर भागती गैय्या सी
 
 
अब वह काल 
जब प्यार की ऑंखें 
 विराट दरसन करती
यशोदा मैय्या सी
 
६ 
प्यार ही जीवन है,
ऐसा तब भी 
मैंने कहा तो था 
पर तब
अर्थ प्यार का
इतना मुक्त नहीं था
जितना अब है
जब 
मैं ने प्यार से 
जान लिया है
अर्थ जीवनमुक्त होने का


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१४ फरवरी २०११






Sunday, February 13, 2011

संकोच करती हैं सीमायें

मैं अब 
छोड़ चुका हूँ किनारा
खोल कर लंगर
गति पकड़ने लगी है नाव
थपेड़े लहरों के
बतियाने लगे हैं मुझसे
हवा के नृत्य से
जुड़ गयी है मेरी दिशा
और 
गंतव्य का गहरा बोध
भर रहा है
एक अनूठा उत्साह मेरी शिराओं में

नदी के बीच
बासी पराठा मुक्ति का
नहीं देता है तृप्ति

अब
इस क्षण
किरणों से, लहरों से, गति से
किनारे की स्मृति से
और पतवार की मधुर लय को
अपनी धडकनों में सजा कर

कर रहा 
उस विस्मय का आव्हान
अंतस में
जो रच कर 
शाश्वत के पदचिन्ह
मिटा कर अधीरता
दे सकता है मुझे
सम्पूर्णता का स्वाद तत्काल

मुक्ति का अदृश्य पराठा
सूंघ कर 
निश्छलता से
लो मैंने देख लिया 
अपने आपको
नदी, किनारे, गति से परे
वहां तक
जहा पहुँचने में
संकोच करती हैं सीमायें

अशोक व्यास
रविवार, १३ फरवरी 2011


Saturday, February 12, 2011

खेल अपने-पराये का


यात्रा
अपने साथ लिए चलती है
सम्भावना
सुख और दुःख की
 
रिश्तो की लहरों में
डूबते-उतरते
कभी जब
घिर आते हैं
आशंका के बादल
बदल जाती हैं
दिन की प्राथमिकता
 
तीव्र हो जाती प्रार्थना

पुकार को जब मिल
जाता है प्राप्य
विस्मृत हो जाते
तनाव भरे क्षण
 धीरे धीरे विरल होता जाता
रक्षक के प्रति
कृतज्ञता का भाव
 
और फिर गति पकड़ लेता
खेल अपने-पराये का

अशोक व्यास
१२ फरवरी 2011




Friday, February 11, 2011

तृप्ति का स्वाद


स्पंदन मेरे आस-पास
रह नहीं सकते
एक से
शांत, समन्वित, रसमय, मधुर
हमेशा
सन्दर्भ के साथ
होना ही है
अलग-अलग आरोह-अवरोह
मन की तरंगो का
असहमति और अपेक्षाजन्य तनाव 
उगा सकता है
विवादी स्वर

साधना 
यानि शीघ्रता से 
मन को सम तक ले आना 
ऐसे की
छिन्न-भिन्न ना हों 
आन्तरिक सौन्दर्य के तंतु ,
और जल्द ही हो जाए जाग्रत 
सुन्दर अनुभूति 
और सहज स्नेह का 
शीतल आलोक 
साधना 
समझ की शाश्वत सीढ़ियों 
पर चढ़ते हुए
तात्कालिकता में भी
तृप्ति का स्वाद
उंडेल देती है
और
सार सुधा प्रवाह 
बन जाता है
हर अनुभव
हर अनुभूति


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
शुक्रवार, ११ फरवरी 2011


Thursday, February 10, 2011

मौन रखवाला

 
यह स्थल
जहां धुल जाता है 
सब संताप,
मिल जाता है
पुलकित 
अपना आप

यह उपवन
जहाँ दिख जाता है
प्रभात,
अंतरतम से
फिर मिल जाती
प्रेम की सौगात

यह स्थल
नित्य शुद्ध
स्फूर्तिदायक
निर्मल आभा वाला,
यह स्थल
जहाँ सुलभ है
निश्छल, निष्कलंक
मौन रखवाला

इस स्थल का पथ
और पता
स्वयं ही
याद ना रख पाऊँ
फिर भी
प्रयास करता हूँ
वहां की कथा
तुम्हें भी सुनाऊँ


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
गुरूवार, १० फरवरी २०११


Wednesday, February 9, 2011

गहरे अनुभव में






कितना अजीब है
अभी जब 
मिला हूँ तुमसे
कर रहा हूँ 
वैसी ही बातें
दिख रहा वैसा ही
कर रहे हैं बात जारी
हम वहीं से
 
पर इस बीच
अपने भीतर
पार कर आया हूँ
एक जंगल
एक तूफानी नदी
देख आया हूँ
पर्वत शिखर
और
उसके मौन की अंगुली थाम कर 
ढूंढ पाया हूँ
एक असीम आकाश 
अपने भीतर


कितना अजीब है
अपने को खोने और पाने के 
गहरे अनुभव में
कोई हो नहीं पाता
साथ हमारे कभी
 
अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका
९ फरवरी 2011




Tuesday, February 8, 2011

जो वह है



बैठ कर
आँख मूंदे
मुस्कुराता हुआ वह 
क्या कट गया है संसार से
या जुड़ गया वैसे
जैसे जुड़ने के लिए
देखना या दिखाई देना जरूरी नहीं


उसके हाथों में
जितनी ताकत दिखती है
उससे कहीं ज्यादा आ जाती है
जरूरत के वक्त
 
उसने सब छोड़ कर
अपना लिया है सबको ऐसे
कि जैसे
अर्थ को अपना लेते हैं शब्द
 
३ 
उसने जितना लिया
उससे कई गुना ज्यादा दिया
कैसा अद्भुत है उसका जीवन
सीमित लेकर असीमित देता रहा है
बिना जताए
जैसे माँ बच्चे को
दूध पिलाये


उसका चिंतन
पावनता की पून्च्जी है
सृजनशील पगडंडी पर 
चलने का आमंत्रण है
हर आयाम में 
सत्य को देखने और अपनाने 
का प्रण है

आचमन से अभिषेक तक
संकल्प से आरती तक
एक जो सूत्र है
वो वही है
उसका चिंतन, सिर्फ चिंतन नहीं
मेरा पूरा का पूरा जीवन है
इतना पूरा कि
तथाकथित मृत्यु भी
अंश मात्र है इस जीवन का
जो वह है
 
अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका
मंगलवार, ८ फरवरी २०११






Monday, February 7, 2011

मुझे पता ही ना चला


उसने कहा तो था
कि जब जब बुलाऊंगा
आएगा वो

पर ये भी कहा था
पूरे मन से बुलाना

अब जब उसे बुलाने की जरूरत है
खंडित मन के इतने सारे टुकड़े
सहेज सहेज कर
पूर्ण आकर बनाने की
कोशिश में
सहसा कौंध गया प्रश्न
किस रंग-रूप का है मेरा मन
आकाश से पूछा तो
उसने कहा 'मेरे जैसा विस्तृत'
हवा से पूछा तो बोली 
'मेरी तरह चंचल'
 
अग्नि, जल और पृथ्वी से
पूछने की बजाये
मन के दर्पण से पूछा 
तो बोला
मन का कोई आकार है नहीं अपना
उसे रंग, रूप, आकार के आभूषण 
तुम पहनाते हो
कभी उसका विस्तार छुपा कर
क्षुद्रता अपनाते हो

मजा तो तब आता है
जब तुम खेल खेल में
स्वयं मन बन जाते हो
लघुता का कोई स्वांग रचाते हो 
और स्वयं को मन ही मान कर
सीमित परिधि में फंस जाते हो 

सहसा 
उसे बुलाने की आवश्यकता
तिरोहित हो गयी
क्या जिसे बुलाना था
वो मैं ही हूँ
या फिर 
वो आया, मुझे छूकर चला गया
और
मुझे पता ही ना चला

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
सोमवार, ७ फरवरी २०११





Sunday, February 6, 2011

Prayog- Amitabh uvach on Bharat and Bhasha

I tried to get Amitabh Bachchanji's views about 'Bharat' and 'Bhasa' few years ago,
during special screening of Amitabh's Films at Lincoln Center, New York.
it felt appropriate to use them again on India's Republic Day this year for community news of
ITV Channel in New York

Based on your feedback, sometimes I will try to share videos related to poetry on this blog.
Actually, somewhere in addition to my love for poety, it was Amitabh's ability to write a blog regularly, that inspired me to start 'Har Din Kavita' and it has been over 444 days of 'everyday poetry'

Creativity demands commitment, often it emerges unconsciously.

Ashok Vyas

जिससे लिखा जाता है सब कुछ


अपनी ही अंगुली
अनजाने में
लील गयी 
एक नन्हे से क्षण में
वह सब जो लिखा गया
और फिर
लौट कर
नए सिरे से
उड़ते बादलों के चित्र लेते हुए
इस बार दिखाई देता है
उड़ गयी है पेड़ पर से चिड़िया
नीले आकाश पर तैरते
है सुनहरे बादल 
 
अभी थोड़ी देर पहले 
बैठी थी नन्ही नन्ही चार चिड़ियाएँ
पेड़ की ऊपरी शाखा पर
देख रही थीं
आकाश, सड़के, मकान
सोच रही थीं 
किस दिशा में उड़ कर
अपने पंखों में छुपी उड़ान उजागर करें
या शायद ये कि कहाँ चुग्गे से चोंच भरें


दिन एक खाली किताब है
जिसे ज्ञात-अज्ञात लेखकों के साथ
लिखने से पहले
अपने हथेलियों में
कर रहा हूँ आव्हान
उस स्वर्णिम आभा का
जो खुद कभी नहीं लिखी जाती
पर जिससे लिखा जाता है सब कुछ 

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
रविवार, ६ फरवरी २०११



Saturday, February 5, 2011

एक बूँद अमृत



1
एक बूँद अमृत
मेरी हथेली पर 
रख कर
देखा उसने मुझे
उसके देखे से
अमृतमय हो गई साँसे



तुम मुझे पकड़ना चाहते हो
खिलखिलाया वह
फिर तो 
मेरा जैसा बनना पड़ेगा तुम्हें
कह कर प्रविष्ट हो गया मुझमें


विश्व को
ब्रह्म का अंडा कह कर
संबोधित करने वाले
देख पाये होंगे
कितना-कितना विस्तार
सोच-विचार की आँखों से
भला कैसे मापा जाए उसे

ये वो अदृश्य रास्ता है
जो प्रकट होता है
हमारे चलने से
और जब कोई चलते चलते
अनिश्चय में खड़ा हो जाता है
ये जगमग रास्ता खो जाता है


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
शनिवार, ५ फरवरी २०११



Friday, February 4, 2011

अनंत का निवास

 
सचमुच मेरे पास
कुछ भी नया नहीं है
तुम्हें कहने को
और वो सब
जो कह चुका हूँ
दोहराते हुए
लगता है
झूठ कर सकता है
उसे भी 
मेरा यूँ कहना
ऐसे वक्त में
जब कि कुछ भी नहीं है
कहने को


जैसे शाम होते ही
घर के परदे लगाते रहे हैं हम
ताकि बाहर से गुजरता कोई अनजान
व्यक्ति 
झाँक कर खिड़की से देख ना ले
हम कैसे जीते हैं
कहाँ, क्या रखा है हमारे घर में

ऐसे ही
कभी कुछ कह कर
कभी कुछ ना कह कर पर्दा लगाते हैं हम
उस बात पर
जो छोड़ जाती है
'अनंत की अंगड़ाई' का एक चिन्ह
हमारे भीतर


छुपाना क्या ये है कि
कि मैं जो 'मुक्त' हुआ था 'एक क्षण'
तो सहेज क्यूं ना पाया
 'असीम सौन्दर्य का वह ऐश्वर्य'
या शायद ये कि
कुछ 'अतीन्द्रिय विलक्षण अनुभव'
जब उतरा मेरे भीतर
तुम ऐसे साथ ना थे मेरे 
जैसे अब हो
जब तुम्हारे साथ साथ
पर्दा हटा कर
देख रहा हूँ
वह चिन्ह, जिसे दिखाने 
हटाया था पर्दा
अब तो देख नहीं पा रहा मैं भी

 
पर सत्य के स्पर्श की
एक स्मृति सी जो है मुझमें 
चाहो तो कर लो
भरोसा मेरा
और हो लो आश्वस्त
मेरे हाथ की रेखाओं में
अनंत का निवास है

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
४ फरवरी 2011


Thursday, February 3, 2011

कब जाग हो पाती है


बात तुम्हारी है
तुम्हे पहचानती है
पर तुम्हें छू लेने का
तरीका नहीं जानती है
खड़ी है दुर्ग के इस पार
ढूंढ रही है वो द्वार
जहाँ से हो सके उसका सत्कार
 
बात एक
कितनी सारी बातें बनाती है
और अपनी बनावट में
खुद ही छुप जाती है

फिर जब एक दिन
अपने मूल स्वरुप के साथ
तुम तक आने को तैयार हो जाती है
तुम्हें इधर-उधर की बातों से
फुर्सत नहीं मिल पाती है
और ये भी है कि
नींद में डूबी हुई आँखें 
इस बात को देख ही नहीं पाती है
बात खड़ी है दुर्ग के इस पार
ना जाने नवद्वार वाले इस परिसर में
कब जाग हो पाती है


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
गुरुवार, ३ फरवरी २०११






Wednesday, February 2, 2011

एक के बाद दूसरा आन्दोलन




कभी आंच
कभी शीतलता
कितना कुछ प्रकट करता है
निसंग आसमान

तोड़ कर तटस्थता
भाग लेते हुए
अबूझ खेल में
क्या,
कुछ कहते-सुनते हैं
एक दूसरे से
धरती और आसमान

या सुनने-कहने की जरूरत
सौंप कर मानव को
मगन रहते हैं
अपने मौन में
परे इस कोलाहल से
जो जकड लेता है हमें
और उकेर देता है
एक के बाद दूसरा आन्दोलन


हहराती लहर की तरह
किनारे तक जा-जाकर
लौट आने का खेल-खेलते
कभी संवरते
कभी बिखरते 
व्यवस्थित-पुनर्व्यस्थित होने की
जरूरत से बाध्य होकर,
कब तक
 'अनंत की रसमय लीला' का
आनंद लेने से पहले
इस तरह 
अशांत उठा-पटक करते रहेंगे
हम धरती-पुत्र 

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
बुधवार, २ फरवरी २०११


Tuesday, February 1, 2011

दूसरे सभागार में



मुक्ति अनिवार्यता है
और मिल भी सकती है 
तत्काल
पर
राजी नहीं हम
स्वयं को छोड़ देने के लिए


भक्ति, भाव से है
भाव-शक्ति से
मन के खेल रचा कर
सुख भोगने का 
नित्य नया नाटक करते
एक सभागार से
दूसरे सभागार में प्रवेश करते हम
अनदेखा करते हैं
सर्वव्यापी विस्तृत आकाश


सहजता और कृत्रिमता के बीच
समझ का पर्दा
कुछ इस तरह उभर आता है
कि जो 
असहज है वो सहज और
जो बनावटी है, वो 
सहज नजर आता है
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
मंगलवार, १ फरवरी 2011

सुंदर मौन की गाथा

   है कुछ बात दिखती नहीं जो  पर करती है असर  ऐसी की जो दीखता है  इसी से होता मुखर  है कुछ बात जिसे बनाने  बैठता दिन -...