Thursday, February 28, 2013

कविता की कोख में ...


यूं लगता तो है 
की 
हम सोते हैं
हम जागते हैं 
पर कभी कभी 
असमय उठ कर 
यह प्रश्न उठ जाता है 
ये कौन है 
जो हमें सुलाता और जगाता है ?
 
२ 
प्रश्न कभी कभी 
एक किरण बन जाता है 
दूर दूर तक आलोक पहुंचाता है 
ये उर्वरा धरा का हिस्सा अपने भीतर कैसे बच जाता है 
जिस पर किसी निश्छल क्षण में शाश्वत की उपस्थिति का बोध उग आता है 
३ 
कविता की कोख में एक वह जो नित्य नया जन्म पाता है 
बिसर जाता है की इस भागते जीव का उससे कुछ नाता है 
कविता याद करने की कला का सुन्दर स्वरुप है 
इन यादों में, सृष्टा अपने होने की मुहर लगाता है 


अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका 
१ मार्च २० १ ३ 

रोजमर्रा की दौड़ भाग

१ 
धीरे धीरे 
रोजमर्रा की दौड़ भाग 
अधजले सपनो की आग में 
तुक मिलाने के असफल प्रयास 
वहां ले जाते हैं अनायास 
की औरों के तरह अपने लिए भी 
कविता रह नहीं जाती ख़ास 
और 
फिर 
एक दिन 
बिना किसी घोषणा के 
चुपचाप 
एक कवि 
किसी गुमनाम क्षण में 
देह से विदा हो जाता है 
पर इस बारे में 
कोइ जान नहीं पाता है 
क्योंकि कविता की साँसे 
कौन सुन पाता है 
हाँ 
कविनामधारी को 
ये अहसास जब हो जाता है 
वो कविता को बुलाने के लिए 
छटपटाता है 
पर जिस भू पर 
उतर पाए कविता 
वो जगह अपने भीतर 
ढूंढते ढूंढते 
फिर रोजमर्रा की दौड़ भाग में 
खो जाता है 
२ 
जीवन 
खोना और पाना है 

स्वयं को ही खोना है 
स्वयं को ही पाना है 
स्वयं को पहचानना ही 
स्वयं को पाना है 
कविता 
हमारे जीवन से हट जायेगी 
तो अपनी पहचान कहाँ से आयेगी ?
अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका 
२8 फरवरी २० १ ३ 

Saturday, February 16, 2013

एक मुस्कान मात्र से


अन्वेषण अनवरत 
कभी अदृश्य 
कभी मुखरित 
एक तार अनंत का 
झंकृत 
तन्मय होने 
अपने मूल स्वर में 
तन-मन के तंतु 
छेड़ छेड़ 
ढूंढता 
एक राग वह 
जिसमें 
अनुनादित हो 
सीमित, असीमित संग 
2
कभी बंशी 
कभी डमरू 
कभी घुँघरू 
और कभी 
एक मौन सा 
निश्चलता में 
सौम्य सुन्दर संगीत 
सार का 
आने जाने से परे 
एक है  
देखना और होना 
3
ओस का भीगापन 
धरती के साथ 
मन पर भी 

 स्निग्ध शीतलता  
खुली सब ग्रंथियां 
एक मुस्कान मात्र से 
छू लेता 
सारी सृष्टि को 
प्यार से जो 
क्या यह 
विद्यमान रहता है 
मेरे ही भीतर 
नित्य निरंतर 
अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका 
16 फरवरी 2013

Friday, February 15, 2013

बदल कर भी बीतते नहीं हम


धीरे धीरे 
न जाने कैसे 
छीज जाता है 
उत्साह 
तिरोहित होती रसमयता 
गति का स्वाद बेस्वाद हो जाता 
ना जाने कैसे 

धीरे धीरे 
छूट जाता है 
एक वो सिलसिला 
जो जीवन को अर्थयुक्त करता है 
किसी विशेष काल खंड में 

धीरे धीरे 
पूरी हो जाती है जब 
खोज हमारी 
एक सन्दर्भ से 
नयी दिशा की पुकार में 
अनायास ही छोड़ देते हैं 
वह सब 
जो नितांत अपना था 
अभी कुछ देर पहले 

धीरे धीरे 
यादों के एल्बम में 
पलट कर 
देखते हैं जब 
अपना ही चेहरा 

वहां जगमगाती प्रसन्नता भी 
अपरिचित हो चली होती है 
हमारे लिए 

स्वयं के साथ 
नए नए सम्बन्ध बनाते हुए 
एक वह सूत्र 
जिस पर 
सजते जाते हैं 
सारे परिवर्तन 
सहसा 
करता है 
आश्वास्त 
बदल कर भी बीतते नहीं हम 
और ना ही 
झूठ हो जाता 
वह सब 
जो हमने जिया 
बस 
सत्य के विस्तार की एक झलक देख कर 
समन्वित हो जाते हम 
जैसे 
धीरे धीरे 
भूल भी जाती है वह झलक 
इस तरह 
छेड़ छेड़ कर हमारा संतुलन 
सत्य हम पर खोलता रहता है 
हमारा विस्तार वह विस्तार 
जो हमें 
एकमेक करता है सत्य से 

अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका 
15 फरवरी 2013

Saturday, February 2, 2013

सागर में खो जाना

कब तक बैठे बैठे 
देखना है 
लहरों का आना जाना
क्यूं नहीं जानता 
होता है कैसे  
  सागर में खो जाना 
 
2
 
सन्नाटा ऐसा 
सहम कर छुप गए 
सारे स्पंदन 
इस तरह 
अपना होकर भी 
अपना सा नहीं लगता मन 
 
 
 
अशोक व्यास 
न्यूयार्क,  अमेरिका 
2 फरवरी 2013
 
 

सुंदर मौन की गाथा

   है कुछ बात दिखती नहीं जो  पर करती है असर  ऐसी की जो दीखता है  इसी से होता मुखर  है कुछ बात जिसे बनाने  बैठता दिन -...