१
धीरे धीरे
रोजमर्रा की दौड़ भाग
अधजले सपनो की आग में
तुक मिलाने के असफल प्रयास
वहां ले जाते हैं अनायास
की औरों के तरह अपने लिए भी
कविता रह नहीं जाती ख़ास
और
फिर
एक दिन
बिना किसी घोषणा के
चुपचाप
एक कवि
किसी गुमनाम क्षण में
देह से विदा हो जाता है
पर इस बारे में
कोइ जान नहीं पाता है
क्योंकि कविता की साँसे
कौन सुन पाता है
हाँ
कविनामधारी को
ये अहसास जब हो जाता है
वो कविता को बुलाने के लिए
छटपटाता है
पर जिस भू पर
उतर पाए कविता
वो जगह अपने भीतर
ढूंढते ढूंढते
फिर रोजमर्रा की दौड़ भाग में
खो जाता है
२
जीवन
खोना और पाना है
स्वयं को ही खोना है
स्वयं को ही पाना है
स्वयं को पहचानना ही
स्वयं को पाना है
कविता
हमारे जीवन से हट जायेगी
तो अपनी पहचान कहाँ से आयेगी ?
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२8 फरवरी २० १ ३
3 comments:
कविता जब हमारे जीवन से हट जायेगी तो हमारी पहचान कहाँ से आएगी, बहुत खूब कहा है, कवि का कविता के बिना जीना ज्यूँ जल बिन मीन ,
नीरज'नीर'
खो जाने के लिये पर्याप्त व्यवस्था है, वाह्य जगत में, अन्तःकरण में।
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