घोषित करके
शिखर पर से
उंडेल देने
सत्य का उजाला
पहुँच कर
जब खोली अपनी हथेलियाँ
उसने
उड़ गया
उजाला
आस्मां की तरफ
और
मैदान में
उतरी
बस उसके खाली हाथों की परछाई
2
इस बार
सोचा था यह
उसने
अपनी स्वर्णिम आभा
न छुपायेगा
न दिखाएगा
बस
मौन के माधुरी में
घुल जाएगा
3
इस बार
उसके
रोम रोम से
फूट रहा था
जो शुद्ध आनंद सा
उससे अनभिज्ञ
मगन अपने आप में
रमता रहा
अव्यक्त अनन्त में
वह ऐसे
जैसे
युगों युगों से
करता रहा हो
रमण
इसी तरह
सीमातीत में
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
6 जून 2012
3 comments:
इस बार
उसके
रोम रोम से
फूट रहा था
जो शुद्ध आनंद सा
उससे अनभिज्ञ
मगन अपने आप में
रमता रहा
अव्यक्त अनन्त में
वह ऐसे
जैसे
युगों युगों से
करता रहा हो
रमण
इसी तरह
सीमातीत में
आनंदमय आनंदम आनंदम
अव्यक्त अनंत में रमण
शुद्ध आनन्द अनुभवजन्य होता है..बहुत सुन्दर कविता..
आनंदमय आनंदम आनंदम
आनन्दित हुई.....
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