Wednesday, June 6, 2012

शुद्ध आनंद सा


घोषित करके 
शिखर पर से 
उंडेल देने 
सत्य का उजाला 
पहुँच कर 
जब खोली अपनी हथेलियाँ 
उसने 
उड़ गया 
उजाला 
आस्मां की तरफ 
और 
मैदान में 
उतरी 
बस उसके खाली हाथों की परछाई 

2

इस बार 
सोचा था यह 
उसने 
अपनी स्वर्णिम आभा 
न छुपायेगा 
न दिखाएगा 
बस 
मौन के माधुरी में 
घुल जाएगा 

3

इस बार 
उसके 
रोम रोम से 
फूट रहा था 
जो शुद्ध आनंद सा 
उससे अनभिज्ञ 
मगन अपने आप में 
रमता रहा 
अव्यक्त अनन्त में 
वह ऐसे 
जैसे 
युगों युगों से 
करता रहा हो 
रमण 
इसी तरह 
सीमातीत में 

अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका 
6 जून 2012 

3 comments:

Rakesh Kumar said...

इस बार
उसके
रोम रोम से
फूट रहा था
जो शुद्ध आनंद सा
उससे अनभिज्ञ
मगन अपने आप में
रमता रहा
अव्यक्त अनन्त में
वह ऐसे
जैसे
युगों युगों से
करता रहा हो
रमण
इसी तरह
सीमातीत में

आनंदमय आनंदम आनंदम
अव्यक्त अनंत में रमण

प्रवीण पाण्डेय said...

शुद्ध आनन्द अनुभवजन्य होता है..बहुत सुन्दर कविता..

yashoda Agrawal said...

आनंदमय आनंदम आनंदम
आनन्दित हुई.....

सुंदर मौन की गाथा

   है कुछ बात दिखती नहीं जो  पर करती है असर  ऐसी की जो दीखता है  इसी से होता मुखर  है कुछ बात जिसे बनाने  बैठता दिन -...