इस बार
वो नहीं था तैयार
मंच पर पहुँच कर
अभिव्यक्ति के अलोक वृत्त से
अपनी बात सुनाने को
सभागार भी खाली सा ही था
पर
किसी धार्मिक अनुष्ठान की तरह
मैंने धकेल दिया उसे मंच पर
और
माईक के सामने
आँखें मूंदे
खडा हो गया वह
फिर मुस्कुराया
और निशब्द बोलने लगा
'वह जब मिल जाता है
फिर इस तरह अपनाता है
कभी रोम रोम गाता है
कभी पूरी तरह चुप हो जाता है
इस चुप्पी में
यह जो सौन्दर्य बरसता है
इसे देखने के लिए
वो आँख बंद करनी होती है
जो इसके अलावा कुछ और ना देखे"
और फिर
उसका वहां
अभिव्यक्ति वृत्त के आलोक में
मौन खड़े रहना
न जाने क्यों
हम सबके लिए
एक विलक्षण अनुभव हो गया था
न जाने कब उतरा वो मंच से
न उसे पता चला
न हम सबको
अशोक व्यास
२१ दिसम्बर २०११
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