ठहरते ठहरते भी
वह न जाने कैसे
कर लेता था
सारी दुनियां की सैर
जानता था
प्रकट-अप्रकट सन्दर्भ इतने सारे
पर
छलकता नहीं था कभी
अनंत सा घड़ा उसके ज्ञान का
सहज
पग पग पर
मगन किसी अदृश्य लोक में
वह उतना ही कभी भी नहीं था
जितना दीखता था
काल और भौगोलिक सीमाओं से परे
हर मौसम में
वह अब भी
दिख जाता है
दिख जाता है
आत्म-सखा की तरह
अमोघ आश्वस्ति और
अदम्य उत्साह का उपहार सौंप कर
जैसे बैठ कर
दर्शक दीर्घ में
देखने लगता है
खेल
जो दरअसल खेलता वही है
जो दरअसल खेलता वही है
वो, जो उतना ही कभी नहीं रहा
जितना दीखता था
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२३ दिसंबर २०११
1 comment:
सब उसकी ही माया साधो...
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