लिख लिख कर बार बार
पता अपना पूछता हूँ अज्ञात से
हर बार एक सिरा
मिल ही जाता है उसकी बात से
सिरा थाम कर अदृश्य पगडंडी पर
धीमे धीमे बढ़ जाता हूँ
इस अनुसंधान में अनजाने
कुछ नया सा गढ़ जाता हूँ
भूल भुलैया के बीच
स्पष्टता की एक झलक पढ़ जाता हूँ
सत्य है बस तुम्हारा साथ
इस सम्बल से कई पर्वत चढ़ पाता हूँ
२
लिख लिख कर कई बार
कुछ नए रास्तों पर भटक जाता हूँ
वही वही शब्द वही वही बात
उसी उसी चौराहे पर अटक जाता हूँ
फिर थक हार कर
ढूढता हूँ कोई स्थल विश्राम का
और कर लेता
उपयोग तुम्हारे नाम का
३
तुम्हारा नाम
यहाँ से वहाँ
सब जगह असर करता है
फिर क्यूँ
एक कोई मेरे भीतर
हर स्थिति में डरता है
४
लिख लिख कर
इस तरह जब मैं अपने आप को दोहराता हूँ
देख देख कर
मुझे ढकने वाली परछाईयाँ हटाता हूँ
न जाने कैसे, इस दोहराव के द्वारा
मैं एक नूतन आलोक अपनाता हूँ
और सहज ही हो जाता कुछ ऐसा
हर भटकाव से परे हो जाताहूँ
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
११ जनवरी २०१४
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लिख लिख कर
इस तरह जब मैं अपने आप को दोहराता हूँ
देख देख कर
मुझे ढकने वाली परछाईयाँ हटाता हूँ
न जाने कैसे, इस दोहराव के द्वारा
मैं एक नूतन आलोक अपनाता हूँ
नित नूतन आलोक अपना पाना ही
सही और वास्तविक जीवन यात्रा है.
आभार
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