Saturday, January 11, 2014

कोई स्थल विश्राम का

 
लिख लिख कर बार बार 
पता अपना पूछता हूँ अज्ञात से 
हर बार एक सिरा 
मिल ही जाता है उसकी बात से 

सिरा थाम कर अदृश्य पगडंडी पर 
धीमे धीमे बढ़ जाता हूँ 
इस अनुसंधान में अनजाने 
कुछ नया सा गढ़ जाता हूँ 
 
भूल भुलैया के बीच 
स्पष्टता की एक झलक पढ़ जाता हूँ 
सत्य है बस तुम्हारा साथ 
इस सम्बल से कई पर्वत चढ़ पाता हूँ

२ 

लिख लिख कर कई बार 
कुछ नए रास्तों पर भटक जाता हूँ 
वही वही शब्द वही वही बात 
उसी उसी चौराहे पर अटक जाता हूँ 

फिर थक हार कर 
ढूढता हूँ कोई स्थल विश्राम का
और कर लेता 
उपयोग तुम्हारे नाम का 

३ 

तुम्हारा नाम 
यहाँ से वहाँ 
सब जगह असर करता है 
फिर क्यूँ 
एक कोई मेरे भीतर 
हर स्थिति में डरता है

४ 

लिख लिख कर 
इस तरह जब मैं अपने आप को दोहराता हूँ 
देख देख कर 
मुझे ढकने वाली परछाईयाँ हटाता हूँ

न जाने कैसे, इस दोहराव के द्वारा 
मैं एक नूतन आलोक अपनाता हूँ 
 
और सहज ही हो जाता कुछ ऐसा 
हर भटकाव से परे हो जाताहूँ 
 
 
अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका 
११ जनवरी २०१४

1 comment:

Rakesh Kumar said...

लिख लिख कर
इस तरह जब मैं अपने आप को दोहराता हूँ
देख देख कर
मुझे ढकने वाली परछाईयाँ हटाता हूँ

न जाने कैसे, इस दोहराव के द्वारा
मैं एक नूतन आलोक अपनाता हूँ

नित नूतन आलोक अपना पाना ही
सही और वास्तविक जीवन यात्रा है.

आभार

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