Wednesday, September 10, 2014

कृतज्ञता का नया ग्रन्थ





लो फिर लौट आया अपने घर 
नहीं है उत्सव 
न सही 
नहीं है सपनो की चकाचौंध 
ना सही 

यहाँ 
यह जो अपनापन है 
मेरे हिस्से का 
इसी में 
खुलती है 
एक खिड़की अनंत दर्शाती 
यहाँ से 
निशब्द 
उतरता है 
यह जो शांत आलोक 
इसमें भीगता 
रमता 
तन्मय होता 
लीन अपने से परे के मौन में 

मैं 
भूल जाता हूँ 
उन गलियों को 
जहाँ मेरा हाथ पकड़ कर चलता था अधूरापन 

यह जो होना है 
अपने घर में 
अपने साथ 

यह होना 
जो बाजार में बिकता नहीं 
मेरे सिवा किसी को दीखता नहीं 

यह 
जो है मेरा पूर्ण होना 
 इसमें आनंदित 
प्रकट 
कृतज्ञता का नया ग्रन्थ 
अर्पित उसे 
जिसने कभी थामी थी रास 
अर्जुन के रथ की 


अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका 
१० सितम्बर २०१४ 





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