Friday, September 19, 2014

मैं एक तीर्थ हूँ


लिखना कुछ नहीं 
बस देखना है 
इस क्षण को 

इस क्षण को नहीं 
अपने को इस क्षण में 

छू लेना है उसे 
जिसे कहा जाता है 
मेरा होना 

शब्द ऐनक लगा कर 
अपने आप में सम्माहित 
मैं 
सुन रहा हूँ 
दूर से गूंजता
 एक नाद 
स्पंदन सा यह 
बह आता जो 
काल की परतों के पार से 
कैसे सम्बंधित है मुझसे 
महसूस करता 
सीमा पार की अपनी उपस्थिति 

मैं मुग्ध हो लेता हूँ 
किस अनिवर्वाचनीय अनुभूति के स्वाद में 
और एक अज्ञात गुफा में बैठ कर निश्चल 

दीप्त भाल लिए 
निहारता हूँ एक यह अचीन्हा विस्तार 

और देखते देखते 
मिटने लगता है
 मेरे और इस विस्तार का भेद 

मेरे चहुँ और उतरती हैं, बहती हैं, छछलाती हैं 
कई कई धाराएं प्रेम और मंगल कामनाओं की 

मैं एक तीर्थ हूँ 

अशोक व्यास न्यूयार्क, अमेरिका 
१९ सितंबबर २०१४ 

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