मैंने
फूलों के बगीचे में
स्वच्छ धूप के साथ बैठ कर
याद किया
वो दिन
जब मेरी अंगुली पकड़ कर
गुरु ने सिखलाया था
लिखना
'जीवन'
२
और भीगी अँगुलियों से
याद करता रहा
कितनी कितनी बार
जीवन के स्थान पर
लिखता रहा हूँ
मृत्यु
३
मैंने
अपने चेहरे पर
तपती धूप का रुमाल ओढ़ कर
याद किया
गुरु ने
सिखलाया था
आँखें खोल कर चलना
और
याद आया
कितनी कितनी बार
आलस्य के कारण
चलता रहा हूँ
आँखें मूंदे-मूंदे
किसी और की आँखों को
पथ दिखलाने का उत्तरदायित्व सौंप कर
४
मैंने
अपने को
स्वर्णिम स्मृतियों में लपेट कर
फिर से जीवित कर दिया
जिस क्षण
खिलखिला उठा
चमचमाता हुआ संसार
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१४ मार्च २०१२
3 comments:
जिसने जीना हो सिखलाया, उसका ही सारा जीवन हो।
उज्जवल स्वर्णिम अनुभूति ...
बहुत सुन्दर सृजन !
आभार !
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