शब्द नहीं
गंगाजल में भीगा
रुमाल है माँ का
पोंछ कर अपना माथा
तरो ताज़ा कर रहा अपना चेहरा
हो रहा तैयार
नए दिन का स्वागत करने
२
शब्द नहीं
मुस्कान है आसमान की
मुझ पर अपनी छाप छोडती
गुदगुदा कर
मुक्त करती मुझे
मेरी क्षुद्र चिंताओं से
३
शब्द नहीं
साकार रूप है सपने का
आश्वस्ति गहरी
संबल शाश्वत
झरना उत्साह का
बहता है जो भीतर मेरे
शब्द स्पर्श से
कहाँ छुप कर
प्रतीक्षा करता था
मेरे भीतर ये
शब्द के आत्मीय स्पर्श की
४
शब्द मिलते हैं
रात्रि के उस छोर पर
भोर को खींच खींच कर
मेरे पास लाते
सुबह की अगवानी में
मुझे साथ रखते हैं शब्द
और इस तरह
खुल जाती है
एक पटरी
जिस पर चल पार करता हूँ
दिन सारा
५
पार दिन के रात ही होती अगर
तो क्यों करना था पार इसे
रात और दिन के बीच
अपने अनदेखे स्थलों तक
यात्रा करता हूँ में
कई संदर्भो के रंग
सजा देते हैं
हर दिन को
जिनमें उलझ कर
फिर अपना चिर मुक्त चेहरा ढूंढता
लौट आता शब्दों के पास
६
शब्द धरती हैं
शब्द आकाश हैं
शब्द क्षितिज भी हैं
शब्द अपने आकार में
सहेजे रखते हैं
एक आकारहीन अस्तित्त्व
जो देता है अवकाश मुझे
इस भरोसे के साथ
कि मेरी पहुँच में है 'विस्तार अपार'
७
एक के बाद एक
सीढ़ी पर चढ़ना नहीं
पहाड़ पर
हर कदम
अपने लिए नयी सीढ़ी बनाता है
अनिश्चय के बीच
ना जाने कैसे
शब्द अदृश्य रूप में
हाथ पकड़ कर मेरा
मुझे एक नयी सीढ़ी गढ़ना सिखाते हैं
८
तो अब तक जो कुछ हुआ
वह नहीं है पर्याप्त
होने को है बहुत कुछ शेष
जगा कर यह आस्था
शब्द करते हैं आव्हान
'देखो दूर तक
देखो ऊंचाई से
देखो उड़ान भरते पक्षी की तरह
देखो क्या कुछ अवांछित उठा लाये हो तुम
साथ अपने
देखो मुक्ति धरी है तुम्हारी हथेली पर
देखो कितनी नदियाँ हैं
तुम्हारे हाथ की रेखाओं में
९
नदियाँ जो बह रही हैं
हाथ की रेखाओं में
गंतव्य उनका
सागर है जो
उस असीम सागर का
क्या सम्बन्ध है शब्दों से
शब्द शायद सब कुछ जानते हैं
पर मुझे थोड़ा थोड़ा बताते हैं
इस तरह मेरे लिए हर दिन
नयेपन का नया स्वाद बचाते हैं
अशोक व्यास
गुरुवार, नवम्बर २६, ०९
न्यू योर्क, अमेरिका
सुबह ५ बज कर ४५ मिनट
गंगाजल में भीगा
रुमाल है माँ का
पोंछ कर अपना माथा
तरो ताज़ा कर रहा अपना चेहरा
हो रहा तैयार
नए दिन का स्वागत करने
२
शब्द नहीं
मुस्कान है आसमान की
मुझ पर अपनी छाप छोडती
गुदगुदा कर
मुक्त करती मुझे
मेरी क्षुद्र चिंताओं से
३
शब्द नहीं
साकार रूप है सपने का
आश्वस्ति गहरी
संबल शाश्वत
झरना उत्साह का
बहता है जो भीतर मेरे
शब्द स्पर्श से
कहाँ छुप कर
प्रतीक्षा करता था
मेरे भीतर ये
शब्द के आत्मीय स्पर्श की
४
शब्द मिलते हैं
रात्रि के उस छोर पर
भोर को खींच खींच कर
मेरे पास लाते
सुबह की अगवानी में
मुझे साथ रखते हैं शब्द
और इस तरह
खुल जाती है
एक पटरी
जिस पर चल पार करता हूँ
दिन सारा
५
पार दिन के रात ही होती अगर
तो क्यों करना था पार इसे
रात और दिन के बीच
अपने अनदेखे स्थलों तक
यात्रा करता हूँ में
कई संदर्भो के रंग
सजा देते हैं
हर दिन को
जिनमें उलझ कर
फिर अपना चिर मुक्त चेहरा ढूंढता
लौट आता शब्दों के पास
६
शब्द धरती हैं
शब्द आकाश हैं
शब्द क्षितिज भी हैं
शब्द अपने आकार में
सहेजे रखते हैं
एक आकारहीन अस्तित्त्व
जो देता है अवकाश मुझे
इस भरोसे के साथ
कि मेरी पहुँच में है 'विस्तार अपार'
७
एक के बाद एक
सीढ़ी पर चढ़ना नहीं
पहाड़ पर
हर कदम
अपने लिए नयी सीढ़ी बनाता है
अनिश्चय के बीच
ना जाने कैसे
शब्द अदृश्य रूप में
हाथ पकड़ कर मेरा
मुझे एक नयी सीढ़ी गढ़ना सिखाते हैं
८
तो अब तक जो कुछ हुआ
वह नहीं है पर्याप्त
होने को है बहुत कुछ शेष
जगा कर यह आस्था
शब्द करते हैं आव्हान
'देखो दूर तक
देखो ऊंचाई से
देखो उड़ान भरते पक्षी की तरह
देखो क्या कुछ अवांछित उठा लाये हो तुम
साथ अपने
देखो मुक्ति धरी है तुम्हारी हथेली पर
देखो कितनी नदियाँ हैं
तुम्हारे हाथ की रेखाओं में
९
नदियाँ जो बह रही हैं
हाथ की रेखाओं में
गंतव्य उनका
सागर है जो
उस असीम सागर का
क्या सम्बन्ध है शब्दों से
शब्द शायद सब कुछ जानते हैं
पर मुझे थोड़ा थोड़ा बताते हैं
इस तरह मेरे लिए हर दिन
नयेपन का नया स्वाद बचाते हैं
अशोक व्यास
गुरुवार, नवम्बर २६, ०९
न्यू योर्क, अमेरिका
सुबह ५ बज कर ४५ मिनट
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