Wednesday, November 11, 2009

बूँद मेरी शाश्वत सखी है



बारिश की बूंदों से
क्या भीग गयी है सुबह
या आंसूं हैं ये रात के
धर गयी है वो
सुबह की देहलीज़ पर

बूँद
किसी किशोरी का अल्हड़पन है
या किसी ऋषि की तपस्या से उमड़ता
मधुर आलिंगन
बूँद क्या
जानती है कि
क्षणभंगु है उसका होना
क्या नष्ट होने का भय नहीं उसको
या धरती में मिल कर भी
अपने को पा लेने की आश्वस्ति है
इस नन्हीं परी में?

मैं बूँद नहीं हूँ
मानता ऐसा हूँ
कि मैं सागर हूँ
मानता ये हूँ
कि मैं मिटने वाला नहीं हूँ
पर जीवन को
अपनी मान्यता के साथ जीने में
बार बार असफल होता हूँ
धरती में मिल कर
अपने स्वरुप को खोते हुए
बूँद कि तरह अपना आप
पा लेने की
आश्वस्ति नहीं मुझमें

बूँद आस्मां से आती है
मैं शायद धरती से आया हूँ
और चाहता ये हूँ
कि अब धरती में नहीं
मिल जाऊं आसमान में

रात-दिन
आसमान तक ले जाती पगडण्डी ढूंढते-ढूढ़ते
जब थक जाता हूँ
कोमल बूँद
मेरे माथे पर उतर कर
करुणा से कहती है
'रास्ता मत ढूंढो
रास्ता बन जाओ
रास्ता होता नहीं
बनता है चलने से
सबका रास्ता अलग अलग होता है
उनके भीतर से निकलता है
मुझे देखो
साथ साथ होते हुए और बूंदों के
आयी तो हूँ मैं
धरती तक
अकेले ही ना'

बूँद एक
बात कह कर अपनी
मिल गयी मुझमें
प्रतिप्रश्न भी नहीं कर सका
कि
'जैसे तुम्हारे लिए
सहज है
धरती पर आना
क्या मेरे लिए भी
सहज है
आसमान तक जाना'

मेरे पास से होकर
धरती तक पहुंचती
एक दूसरी बूँद ने कह दिया
'चलने से होगा'
इस बार हवा ने
भी साथ दिया बूँद का
बोली
'जब दृढ़ निश्चय के साथ चलोगे
चलना तुम्हारा उड़ना हो जाएगा
और आसमान ख़ुद हाथ बढ़ा कर
तुम्हे गोद में उठाएगा'

आसमान तक वो जाएगा
जो आसमान कि गोद में बैठने लायक
बन जाएगा,
ऊंचाई से ऐसा रिश्ता
चलते चलते ही जाग्रत हो पायेगा

बूँद
ना किसी किशोरी का अल्हड़पन है
ना किसी ऋषि का मधुर आलिंगन
बूँद मेरी शाश्वत सखी है
मिट कर भी मिटती नहीं
कभी धरती बन जाती है
कभी मेरी होकर मुझ ही में समाती है


अशोक व्यास
न्यूयार्क सुबह :२४ पर

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