१
तो कैसे उतरोगे सतह तक
लहरों को पार कर
चीर कर प्रतिबिम्ब गगन का
कैसे होगा सम्भव
थाह लेना सागर की
नापना गहरायी
उसकी और अपनी
साथ साथ
साथ साथ
२
सम्भावना की झिलमिलाहट
सम्भावना की झिलमिलाहट
क्या छलावा है
क्या हो ही नहीं सकते वह
हम कभी
जो हम
समझते हैं की हम हैं
३
क्यों होता है भेद
होने और होने में
एक यह जो अनजाने में
हुआ गया
एक वह जो जान कर भी
ना हुआ गया
अन्तर इन दोनों का
देख देख
पत्ते झड़ते हैं
४
नंगी शाखाओं पर
क्या लिखा होता है
पत्तों के बिछोह का दर्द
या
वो रूखेपन में
मना रही होती हैं
उत्सव अपनी स्वतंत्रता का?
५
पत्ते जो झड़ते हैं
फिर आते हैं
फिर हरा भरा होता है पेड़
क्या इसी तरह
कामना के पत्ते
फिर फिर आकर हरा- भरा करते हैं हमें
६
शायद यहाँ भेद है
मनुष्य और पेड़ में
कामनाओं के झड़ जाने के बाद भी
शाखाएं नंगी नहीं होती जीवन की
वसंत उगता है
पूर्णता का
छा लेता है पूरे अस्तित्व को
७
तुम्ही कहो
कुछ न चाहने पर भी
यह जो प्यार की बयार बहती है
कहाँ से आती है
किसी का कुछ न होने पर भी
यह जो एक सहज अपनापन है
यह क्या है
८
और कभी कभी
आनंद का अद्भुत राग जो
बज उठता है
रोम रोम में
कहाँ है इसका उद्गम
कौन है जो
हर बिछोह के बाद भी
तृप्ति के अनाम घूँट पिला कर
तारो-ताज़ा रख सकता है
एक हिस्सा हमारा
९
और यह हिस्सा
जो विस्मित करता है
जो हमें लेकर
सृजन वन में नए पग धरता है
कभी ऐसा माधुर्य उंडेलता है
की हर पथ वृन्दावन करता है
यह विस्मित करता हिस्सा
संजो कर लाता है
सागर की सतह के स्पर्श की स्मृति
और सहसा प्रतिबिम्बों का सत्कार करते करते भी
सम्पूर्ण सागर का वैभव खुल जाता है हम पर
एकाएक
फिर सवाल ये
अपने इस सौभाग्य को कहाँ धरें कि
सुरक्षित रहे
और सुलभ हो हमारे लिए हमेशा
अशोक व्यास
न्यूयार्क, नवम्बर १२, ०९
सुबह ६:३५ पर
क्या हो ही नहीं सकते वह
हम कभी
जो हम
समझते हैं की हम हैं
३
क्यों होता है भेद
होने और होने में
एक यह जो अनजाने में
हुआ गया
एक वह जो जान कर भी
ना हुआ गया
अन्तर इन दोनों का
देख देख
पत्ते झड़ते हैं
४
नंगी शाखाओं पर
क्या लिखा होता है
पत्तों के बिछोह का दर्द
या
वो रूखेपन में
मना रही होती हैं
उत्सव अपनी स्वतंत्रता का?
५
पत्ते जो झड़ते हैं
फिर आते हैं
फिर हरा भरा होता है पेड़
क्या इसी तरह
कामना के पत्ते
फिर फिर आकर हरा- भरा करते हैं हमें
६
शायद यहाँ भेद है
मनुष्य और पेड़ में
कामनाओं के झड़ जाने के बाद भी
शाखाएं नंगी नहीं होती जीवन की
वसंत उगता है
पूर्णता का
छा लेता है पूरे अस्तित्व को
७
तुम्ही कहो
कुछ न चाहने पर भी
यह जो प्यार की बयार बहती है
कहाँ से आती है
किसी का कुछ न होने पर भी
यह जो एक सहज अपनापन है
यह क्या है
८
और कभी कभी
आनंद का अद्भुत राग जो
बज उठता है
रोम रोम में
कहाँ है इसका उद्गम
कौन है जो
हर बिछोह के बाद भी
तृप्ति के अनाम घूँट पिला कर
तारो-ताज़ा रख सकता है
एक हिस्सा हमारा
९
और यह हिस्सा
जो विस्मित करता है
जो हमें लेकर
सृजन वन में नए पग धरता है
कभी ऐसा माधुर्य उंडेलता है
की हर पथ वृन्दावन करता है
यह विस्मित करता हिस्सा
संजो कर लाता है
सागर की सतह के स्पर्श की स्मृति
और सहसा प्रतिबिम्बों का सत्कार करते करते भी
सम्पूर्ण सागर का वैभव खुल जाता है हम पर
एकाएक
फिर सवाल ये
अपने इस सौभाग्य को कहाँ धरें कि
सुरक्षित रहे
और सुलभ हो हमारे लिए हमेशा
अशोक व्यास
न्यूयार्क, नवम्बर १२, ०९
सुबह ६:३५ पर
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