Tuesday, November 10, 2009

तो क्या चिरमुक्त नहीं हूँ मैं?












घुल-मिल रहा हो
जब अँधेरा, उजाले से
सुबह-सुबह
आश्वस्ति देता है
प्रकृति का यह निश्चय कि
सिमटने वाला अँधेरा ही होगा
और फैलने वाला होगा उजियारा ही

मेरे भीतर भी
होती है रात
आता है दिन
पर निश्चित नहीं है अवधि
कभी कभी रात लम्बी होती है
कभी कभी दिन लंबा होता है

कभी कभी यूँ भी होता है
कि घुला-मिला होता है
अँधेरा उजाले से
और मैं घिर जाता हूँ
एक अनिश्चय में

अनिश्चय के कचोटते क्षणों में
कई बार
जब यूँ लगा है कि
सिकुड़ गयी है
संभावनाओं कि कोठारी
मैंने तुम्हे पुकारा है
या शायद मेरे अश्रुओं में बही है पुकार

और हमेशा
हुआ है
तुम्हारे किसी संकेत, किसी दूत का आगमन
मुझे मुझसे छुड़ाने के लिए

मुक्ति जो देते हो तुम
वो बनी क्यों नहीं रहती
छूट क्यूं जाती है मुझसे
क्यूं फिर से बंदी बन जाता हूँ
क्यों फिर से जकड लेता है अनिश्चय
क्यूं फिर से लौट आता है एक डर

क्या मुक्ति को भी मुझसे चाहिए कुछ
शायद मेरे साथ रह पाने के लिए
शर्त है कुछ मुक्ति कि

हे देने वाले
यदि मुक्ति भी मुझ पर निर्भर है
तो क्या चिरमुक्त नहीं हूँ मैं?

यदि मैं चिर मुक्त हूँ
तो भूल क्यों जाता हूँ यह बात?
समझा!
जब जब मैंने पुकारा है
तुम कहीं और से नहीं
मेरे ही भीतर से आए हो

यदि मेरी पुकार ही प्रकट करती है तुम्हे
तो बड़े तुम हुए या मैं?

क्षमा करना मेरे शाश्वत सखा
तुम हमेशा मुझे वह स्थल दिखाते हो
जहाँ कोई छोटा कोई बड़ा
जहाँ एकपना है
दोपना है ही नहीं
और व्यवहार मे
इस अद्वितीय माधुर्य को भूल
हर बार
मेरे-तुम्हारे, लेन-देन कि खींच तान मे
उलझ कर
वहां पहुँच जाता हूँ मैं
जहाँ सिकुड़ जाती है
सम्भावना कि कोठारी
और मेरे अश्रु पुकारते हैं तुम्हे


जय हो!

अशोक व्यास
6:22am, न्यूयार्क

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