Tuesday, November 3, 2009

दृश्य क्या स्वतंत्र हैं हमसे





1
देर तक अटक कर
एक ही स्थान पर
जब देख पाते हैं
निकलने का रास्ता
अक्सर
सोचते हैं
क्यों नहीं देख पाये यह रास्ता
जो इतना समीप था

दृश्य क्या स्वतंत्र हैं हमसे
जब चाहें खुलें
जब चाहें
सामने होते हुए भी
जो जायें अदृश्य


मैं अपने आस- पास के
दृश्यों से नया नया रिश्ता बनाने के
नए नए तरीके ढूंढते हुए
कभी कभी
जब उस बिन्दु तक पहुँचता हूँ
जिससे
सम्बन्ध है हर दृश्य का
तब एकाएक
दृश्य खो जाते हैं
या
शायद खो जाता हूँ मैं ही

खो जाने के बाद
जो शेष रहता है
वो कौन है
वो कैसे रहता है
वो क्यों रहता है

सवालों के साथ
जागता है
मेरा रूप
मेरी पहचान
मेरी इच्छाएं
मेरी चिंताएँ

सवालों से परे
जहाँ छूट जाती है जिज्ञासा
जहाँ नहीं शेष रहता कुछ जानना
वहां मैं भी तो नहीं रहता

मैं रहना चाहता हूँ
सवालों के नए नए समूह बना कर
देखता हूँ
मैं बना हुआ हूँ
इस दृश्य मे
उस दृश्य मे
और छू रहा हूँ
अपने होने को,

इस तरह अपने होने के भाव
का स्पर्श करने के लिए ही
हैं सारी बातें



क्यों इतना सुंदर है
मेरा होना
कैसे इतनी परिपूर्णता का बोध
गुनगुनाता है, नृत्य करता है
मेरी साँसों में

जबकि आज भी
बमों के धमाके
कहीं न कहीं
उगल रहे हैं
जानलेवा लपटें
अभी इस क्षण भी
किसी ने किसी के साथ
अमानवीय व्यवहार किया होगा
क्षण ने कहीं



भाव मेरा यह कि
सुंदर, समन्वित, मधुर हो दृश्य

कोई जादूगर नहीं, न कोई तांत्रिक
पर अब तक श्रद्धा है मुझमें
शब्दों में दृश्य बदलने की
ताक़त है

मुझे रचते हैं
शब्द
जिस तरह
क्या हम संसार को रचने का रास्ता
पूछ नहीं सकते शब्दों से

सम्भव है आए
वह क्षण
जब हम देख पायें एक नया रास्ता
और सोचें
क्यों नहीं देख पाये यह रास्ता
जो इतना समीप था

अशोक व्यास
न्यू यार्क, नवम्बर ३, ०९
सुबह सात बजे


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