टूटन सी एक
दरार सी एक
कहाँ से आ जाती है
चलते चलते
मन के भीतर
एक कराह
एक आह
अपनी सांसों में
पलने लगती है जब
हम सोचते हैं
रास्ता छोड़ कर
सुस्ता लें थोडी देर
सोचते हैं
ये सैलाब भागती गाड़ियों का
टल जाए
कुछ चैन का मौसम हो सड़क पर
तो चलें
और कई बार
सम्भव नहीं होता ठहरना
करना होता है भीतर की टूटन का निस्तार
भीतर ही भीतर
ऐसे क्षण में
जब हम अपने असीम रूप को याद करते हैं
तो वह झूठ लगता है
झूठ और सच के बीच
बहला कर हमें
लगता है
हंस रहा है कोई
२
क्या हम बने रहें
अपनी कराह के साथ
लेते हुए
कैसेली कसक का स्वाद
या
सच और झूठ की
हमारी समझ से परे
सम्भव है निकलना
नयी दृष्टि के आंगन में
चलते चलते ही
३
सवालों का सामना करते करते
कभी कभी
होती है
झुंझलाहट
हमारे हिस्से
सिर्फ़ सवाल ही क्यों
सारे समाधान छुपा दिए गए हैं
धर दिए गए हैं परतों के पीछे
सारी दुनिया
एक सवाल है
सवाल ये की 'मैं हूँ कौन?'
और अक्सर ये होता है
जो जो जवाब मिलता है
अधूरा सा लगने लगता है
किसी ना किसी रूप में
४
क्या मैं बदलता जाता हूँ निरंतर
क्या मैं
परिभाषा की हर परिधि से परे
निकल जाता हूँ बार बार
तो क्या करुँ ऐसे क्षणों मे
जब पहचान की हूक
बैठ जाए आकर
मेरे काँधे पर
६
पकी पकाई श्रद्धा से
काम नहीं चलता ऐसे नंगे पलों मे
नए सिरे से पकाना होता है
श्रद्धा को
या शायद पकता जब मैं हूँ
तब प्रकट होती है श्रद्धा
लगता है कोई
विशेष सम्बन्ध है
श्रद्धा के साथ मेरा
अशोक व्यास
नवम्बर १४, ०९
न्यू यार्क सुबान ८ बज कर ४३ मिनट
दरार सी एक
कहाँ से आ जाती है
चलते चलते
मन के भीतर
एक कराह
एक आह
अपनी सांसों में
पलने लगती है जब
हम सोचते हैं
रास्ता छोड़ कर
सुस्ता लें थोडी देर
सोचते हैं
ये सैलाब भागती गाड़ियों का
टल जाए
कुछ चैन का मौसम हो सड़क पर
तो चलें
और कई बार
सम्भव नहीं होता ठहरना
करना होता है भीतर की टूटन का निस्तार
भीतर ही भीतर
ऐसे क्षण में
जब हम अपने असीम रूप को याद करते हैं
तो वह झूठ लगता है
झूठ और सच के बीच
बहला कर हमें
लगता है
हंस रहा है कोई
२
क्या हम बने रहें
अपनी कराह के साथ
लेते हुए
कैसेली कसक का स्वाद
या
सच और झूठ की
हमारी समझ से परे
सम्भव है निकलना
नयी दृष्टि के आंगन में
चलते चलते ही
३
सवालों का सामना करते करते
कभी कभी
होती है
झुंझलाहट
हमारे हिस्से
सिर्फ़ सवाल ही क्यों
सारे समाधान छुपा दिए गए हैं
धर दिए गए हैं परतों के पीछे
सारी दुनिया
एक सवाल है
सवाल ये की 'मैं हूँ कौन?'
और अक्सर ये होता है
जो जो जवाब मिलता है
अधूरा सा लगने लगता है
किसी ना किसी रूप में
४
क्या मैं बदलता जाता हूँ निरंतर
क्या मैं
परिभाषा की हर परिधि से परे
निकल जाता हूँ बार बार
तो क्या करुँ ऐसे क्षणों मे
जब पहचान की हूक
बैठ जाए आकर
मेरे काँधे पर
६
पकी पकाई श्रद्धा से
काम नहीं चलता ऐसे नंगे पलों मे
नए सिरे से पकाना होता है
श्रद्धा को
या शायद पकता जब मैं हूँ
तब प्रकट होती है श्रद्धा
लगता है कोई
विशेष सम्बन्ध है
श्रद्धा के साथ मेरा
अशोक व्यास
नवम्बर १४, ०९
न्यू यार्क सुबान ८ बज कर ४३ मिनट
No comments:
Post a Comment