Friday, November 20, 2009

इस भँवर के पार




तत्पर हूँ
दिन का स्वागत करने मन से
पर तन में अब भी
भरा है प्रमाद



टप-टप, टप-टप
गूँज रहा है
बूंदों का संगीत

बरसती रही है बरखा
देर रात से



हथेली में
संभावनाओं का सूरज है
या बुलबुला कोई

पता लगाने
समय की देहरी पर
लेकर जाना है
अपने आप को


वह जिसे पूर्णता मानते हैं हम
क्या वह भी एक छलावा है?

यदि सत्य है तो
क्यों फिसल जाता है
परिपूर्ण होने का बोध

जीवन क्या सहेजने का नाम है
सत्य को सहेजो
पूर्णता को सहेजो
प्यार को सहेजो
सपनो को सहेजो

सारे अनुभवों में सार को सहेजने के लिए
रात दिन चिंतन करने वाला
क्या सहेज कर रख पाता है
अपनी सहजता?


क्या मैं
पूर्ण नहीं हूँ
अपनी सहज अवस्था में

या धीरे धीरे
कुछ न कुछ यत्न- प्रयत्न करते करते
मैं भूल ही गया हूँ
सहज होने का अर्थ



सहज सामिप्य
धीरे धीरे
छूट जाता है कहीं

किसी के भी समीप रहने के लिए
हमें
वह होना होता है
जो हम नहीं हैं

सामिप्य यानि
अपेक्षाओं के तंतु
अपेक्षा यानि कुछ बुनावट, कुछ बनावट

अपेक्षाओं की ताल से
अपने होने की ताल मिलाते मिलाते
हम जो होते हैं
क्या वह सत्य है?


कहीं ऐसा तो नहीं कि
होने की उधेड़बुन में
हम परे चले आते हैं
सत्य से

और फिर ढूंढते हैं
कैसे फिर से वह हो जाएँ
जो तब थे
जब कुछ भी ना हुए थे



लगता है मेरी उलझन पर
हँसता है
कोई एक चिर मुक्त,
उसकी हँसी में अपनी हँसी मिला कर
सहज ही
निकल आता हूँ
इस भँवर के पार
जिसमें नदी नहीं
गोल गोल चक्कर ही
साथी होते हूँ
मेरी अनुभव यात्रा के


अशोक व्यास
शुक्रवार, नवम्बर १९, ०९
नुयोर्क, अमेरिका
सुबह पाँच बज कर ३० मिनट

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