Monday, November 16, 2009

अपने खो जाने वाली बात




चलते चलते रुक कर
फिर एक बार
सुनिश्चित करते हुए दिशा
जान गया जब
कि भटक गया है वह

घिर गया डर में
एक तो खो जाने का डर
और दूसरा ये डर
कि यहाँ पहुँच कर
किसी को बता भी नहीं सकता
कि वह खोया हुआ है


पूछना जरूरी सही
संकोच रहता है पूछने में

अच्छा नहीं लगता
कि कोई ओर भी
ये जान ले
कि हम भटके हुए हैं



एक और बात ये
कि सवाल पूछने से पहले
जरूरी लगता है
कि जहाँ तक पहुंचे हैं
उस पहुँच को सही ठहराएँ

अपनी यात्रा को
छुपाते हुए
हम नकार रहे होते हैं
अपने रास्ते को


बात सीधी नहीं
घुमावदार है
रास्ते कि तरह

बात को कहाँ पहुंचना है
इसके बारे में
मैं पूछता हूँ
बात से ही

जैसे कि जीवन का पता पूछता हूँ
हमेशा जीवन से ही


रास्ता कभी कभी
एक बात बन जाता है

एक बात वो है
जो आंख खोलते वक्त कोई
हमारे हाथ मे थमाता है

एक बात ये
जो रास्ते के साथ बदलती जाती है

और हम कसमसाते रहते हैं
क्यों बदल गयी बात

मैं कविता नहीं लिखता
अपने आप से बात करता हूँ

ऐसे ही जैसे कोई किसी ओर से बात करे

ये जाने बिना कि क्या प्रतिक्रिया होगी

मुझमें जो यह 'एक अन्य' है
साथ साथ होते हुए भी
अपना नयापन बनाये रखता हुआ

इस 'एक अन्य' कि दृष्टि से
कई कई बार
नयी नयी लगी है सुबह
कई बार यूँ लगा जैसे
रास्ते पर किसी ने सौन्दर्य उंडेल दिया है अचानक

मेरे अन्दर ये जो
दो दृष्टियाँ हैं
कविता इनके बीच पुल बनते हुए
मुझे जोडती है

तो क्या कविता मेरे लिए योग है

काव्य योग
साँसों के साथ विरासत मे मिला है हमें

ये ऐसा धन
जो खर्च करने से बढ़ता है

इसके खर्च होते होते
फैलता जाता है
हमारा संसार

मैं कविता नहीं लिखता
विस्तार का आव्हान करता हूँ

सागर से ही कहता हूँ
अपने खो जाने वाली बात

वो जब सुन कर मेरी उहा-पोह
'हुंकार' भर दे देता है
संकेत कि सुन लिया है
उसने मुझे

ना जाने कैसे
अचानक खुल जाती है
रास्ते कि पहचान

कविता मेरे लिए
सही दिशा मे
गतिमान होने की स्पष्टता का उपहार
लाती है
माँ है मेरी
मुझे आगे बढ़ता देख कर वात्सल्य से मुस्कुराती है

अशोक व्यास
नवम्बर १६, ०९
सोमवार,
सुबह ६ बज कर ३ मिनट
न्यू योर्क, अमेरिका

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