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(संवित साधनायन, आबू पर्वत चित्र -अमित गांगुली) |
जाने कब तक
जारी
वही एक तलाश,
किस घाट पर
बुझेगी
ये गहरी प्यास
क्यूं बना रहता है
भीतर
एक जड़ता का वास
क्यूं अधूरा सा
रह जाता
हर एक प्रयास
क्यूं नहीं मिलते
धरती और आकाश
क्यूं हो जाता है
दिन हमसे निराश
कब शुरू होगी
स्वप्निल उड़ान
मुश्किलें कैसे
होंगी आसान
कैसे सक्रिय होता है
समर्पण
कैसे हो सारयुक्त
हर एक क्षण
कविता के साथ
अपने भीतर
कभी सफाई, कभी श्रृंगार
और इस तरह
मिल जाता
आत्मीयता का उपहार
शायद कभी
इसी तरह छू जाए ऐसा तार
कि बज उठे
चिर समन्वय की झंकार
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
सुबह ७ बज कर १५ मिनट
शुक्रवार, ३० अप्रैल २०१०