कैसा है ये खेल जी
कैसा है जंजाल
एक पल दौलतमंद जो
दूजे पल कंगाल
मन में बैकुंठधाम है
मन हलचल का वास
अपने वृत्ति अश्व की
रखो थाम कर रास
अपनेपन की है कथा
जीवन का हर रंग
कहीं बढ़त का बांकपन
कहीं घटत का ढंग
खेल करे उत्तेजना
खेल करे है ताप
लहर नृत्य में खो रही
एक अनंत की छाप
मुझको ऐसे छू रहा
आप्तकाम का स्नेह
इस पल तो ऐसा लगे
मिटे सभी संदेह
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
सुबह ९ बज कर १३ मिनट
शनिवार, अप्रैल १०, २०१०
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