Monday, April 19, 2010

मुक्ति के वैभव पथ पर


अपने ही भीतर उठे
बवंडर में घिर कर
जब सूझ नहीं रहा था कुछ भी
अंधड़ से बंद हो रही थी ऑंखें
लगता था
धधक रहा है
कोई ज्वालामुखी
पास ही में कहीं

तब
याद आया
स्वर्णिम शिखर की 
एक भव्य प्रस्तर शिला पर
प्रवेश द्वार से पहले लिखा था
'सतर्कता'

शब्द कौंधते  ही
सतर्क होकर
पहुंचाई 
पहचान की दृष्टि
नए सिरे से अपने भीतर,
बदल गया फिर सन्दर्भों का आयाम
और
सहसा
थम गया बवंडर
पुनः अपने संकीर्ण घेरे से बाहर
मुक्ति के वैभव पथ पर
खड़ा होकर
विस्तार का आलिंगन करते हुए 
करने लगा उसका आभार
जिसने मुझे 
स्वर्णिम शिखर तक पहुँचने का
पथ दिखलाया था


अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका
सुबह ८ बज कर ३३ मिनट
सोमवार, १९ अप्रैल 2010

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