लहर दर लहर
सागर भेज रहा है सीढियां
चलो, उठो गगन तक जाओ
हहरा कर
सुना रहा है सन्देश
जो छूट नहीं सकता, उसे अपनाओ
२
हवा को कौन देता है
कभी ऊष्मा, कभी शीत
कौन जगाता है
रुकने-चलने का संगीत
हवा जो कहीं देती नहीं है दिखाई
कभी इतनी सुहाती, जैसे शहनाई
मंगल गान लिए अंतस तक जाती है
पुरखों की आशीषों में नहलाती है
हवा में कभी ऐसे स्पंदन खनकते
जैसे देवकृपा सी बरस जाती है
ये अपने मूल की आश्वस्ति लुटाती
आत्म वैभव से सम्पन्न बनाती
शाश्वत का समन्वित सुर लिए बहती
ये हवा कहाँ से इतना ममत्व पाती?
३
तब धरती ने कहा
पहले मुझ पर लिखो ना कविता
मैंने धरती का विस्तार देखा
नदी, पर्वत, वृक्ष, लताएँ
ऋतुओं का श्रृंगार देखा
फल, फूल, पशु, पक्षी
मनुष्य का नित्य व्यापार देखा
कहीं शांति की पताका फहराती
कहीं आतंक और अत्याचार देखा
तब फिर धरती ने उमंग से कहा
देख 'रेत' को तो देख
एक एक कण में उर्वरा छुपाई
तब तुमको फसलें मिल पाई
धरती आज मुझसे बतियाने के मूड में थी
मुझे लगा अब फिर प्रदूषण का रोना सुनाएगी
पेड़ों के कटने पर होने वाली व्यथा सुनायेगी
शायद किसी ज्वालामुखी की पीड़ा का मर्म
आज मुझको शिकायत के साथ बतायेगी
पर नहीं, माँ तो मुस्कुरा रही थी
इतनी पीड़ा के बावजूद मुझ पर प्रेम लुटा रही थी
'सुनो, आज तुम्हे एक गोपनीय बात बताती हूँ
सहनशीलता की अनुपम कला तुम्हे सिखाती हूँ'
अब मैं चोकन्ना था
रोम रोम से सुन रहा था
माँ ने मेरे बालों पर हाथ फहराया
फिर कुछ धीरे से बुदबुदाया
मेरी कुछ समझ में नहीं आया
पर माँ ने फिर से दोहराया
'जहाँ दीवार है, वहां विस्तार नहीं है
सिर्फ अपने लिए जीने में सार नहीं है
चाहे आंधी हो या तूफ़ान
इस बात पर देना ध्यान
जैसे जैसे सेवा भाव से
दूसरों को अपनाओगे
सहनशक्ति और सम्रद्धि
अपने भीतर पाओगे
सुनो, रेत के एक एक कण में
उर्वरा देने वाला है मेरा प्यार
मेरी ये धरोहर सँभालने
कहो कौन हो गया है तैयार
धरती माँ ने जब कही ये बात
सोचा था, वो है बस मेरे साथ
पर फिर समझ में आया
माँ ने ये सन्देश सबको सुनाया
पर बिरला ही उसे सुन पाया
और इस बात को जिसने अपनाया
वो ही प्यार की अक्षय पालकी में
जीवन का अतुलित सौंदर्य देख पाया
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
सुबह ७ बज कर २० मिनट
शुक्रवार
२५ जून २०१०