Wednesday, June 30, 2010

अपनी पूर्णता ना बिसराओ



गगन धरा है
धरा गगन
मुक्ति सहज 
मन हुआ मगन 
---------

अब भी मान लो
मूल जो है
सारे अनुभवों का
छुप कर मन में तुम्हारे
खेल रचाता है
सुख-दुःख के, 
इसी से जुडी है
व्याकुलता, उद्विग्नता
इसी से प्रकट
आश्वस्ति, निश्चिंतता

अब तो देखो
बाहर से दीखते
हंसाते, डराते चित्रों के रंग
आ तो रहे हैं 
तुम्हारे ही भीतर से

हाँ, हो ये रहा है
कि अदृश्य होती जा रही है
संपर्क नदी
अचीन्हा होने लगा है
बाहर-भीतर का पुल

अपनी व्यस्तता के नाम पर
जाने-अनजाने
और सब कुछ सँभालने की जिद में
सबसे पहले
तुम खो बैठते हो
अपना ही परिचय

अपने ही राज्य में
भिखारी बन कर
उनके सामने हाथ पसारते हो
जिनका होना
तुम्हारी लीला मात्र है

इस तरह ना कसमसाओ
अपनी पूर्णता ना बिसराओ 
रो रोकर अपने सौभाग्य का
उपहास ना उडाओ


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
सुबह ७ बज कर ४५ मिनट
बुधवार, ३० जून २०१०





 

Tuesday, June 29, 2010

जो बदलता नहीं कभी



धीरे धीरे
लम्बे समय के अभ्यास के बाद
अब
मन के आँगन में 
रह ही नहीं गए हैं शेष
कोई कांटे
किसी से कोई शिकायत नहीं है
एक घना संतोष 
और इसके साथ एक नाद जो है
भरा भरा सा
ठहरने ही नहीं देता 
किसी क्षोभ, किसी कसक, किसी सतही उत्तेजना को

पूर्णता के पथ पर
अग्रसर होने के प्रयास में
धीरे धीरे
बहुत कुछ अप्रासंगिक होने लगा है
मेरे लिए

इस तरह कि असंगता
मुझे उससे तो जोड़े है
जो बदलता नहीं कभी
पर यह सब बदलने वाला जो है
इसके साथ
मेरा सम्बन्ध जो है
लगता है, है ही नहीं

अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका
सुबह ७ बज कर ५ मिनट
मंगलवार, २९ जून २०१०

बस अचानक
रेत में हाथ डाल कर
इस बार मैंने
कर ही ली प्रार्थना,
इस बार मैं
नहीं लाया हूँ बीजों का उपहार
दो तुम मुझे
सब कुछ देने वाली धरती
कुछ ऐसा
जो सदा रहे साथ
जिसे लेकर जहाँ जाऊं
तुम्हारे पुत्र के रूप में हो पहचान मेरी
और भी न जाने
क्या कुछ कहता रहा था
सींचते हुए अपने आंसूओं से धरती को

धीरे धीरे पिघल कर बह गया दर्द
न जाने कैसे मेरे भीतर
बहने लगी थी नदी उल्लास की

ना जाने कैसे
यूँ हुआ जैसे मेरा हाथ
पेड़ की जड़ की तरह
लेकर धरती से रहस्यमयी कुछ
भर रहा था मेरी सूक्ष्म चेतना मे

हाथ जब निकाल कर
रेत में से
देखा अपने ही हाथ को
तो बदली बदली लगीं
अपने ही हाथ की रेखाएं

इस बार मेरे हाथ के घेरे मे
सिर्फ़ मै ही नहीं था
मेरा पूरा परिवार था
मेरे मित्र थे
मेरे संगी-साथी
जाने-अनजाने लोग ही नहीं
आकाश भी था, हवा भी थी, आग, पानी, धरती
सब कुछ कैसे दिखाई देने लगे थे मेरे हाथ की रेखाओं मे

अचरज भरी बात थी
पर सहज लग रहा था सब कुछ

चलने पर यूँ लगा जैसे
मैं कभी टूटा ही नहीं था
जैसे कभी रहा ही नहीं मैं एकाकी
और
धमक रहा था मेरे रोम रोम मे
वह भाव जिसे शायद प्यार कहा जा सकता है
ऐसा प्यार जो सिर्फ़ देना जानता है

और नए सिरे से
प्रस्तुत हुआ मैं
अपने आप को संसार को सौप देने के लिए
इस आश्वस्ति के साथ
की मैं वह हूँ
जिसका कभी अंत नहीं होता

अशोक व्यास
अक्टूबर ३०, ०९

Monday, June 28, 2010

सूरज की सीख


1
सिक्के के दो पहलू जो हैं
दोनों ही मेरी जेब में हैं
पर जब तुम मेरे पहलू में हो
सिक्का उछाले बिना ही
तय हो जाता है
पहल का निर्णय

व्यवस्था का स्वरुप 
स्थिरता का अभिनय
इतनी अच्छी तरह से करता है
कि भूकंप आने के क्षण तक
हम धरती के अडोल होने को
चिरंतन सत्य माने रहते हैं


 अपनी रश्मियाँ फैला कर
हम अपने लिए
आश्वस्ति का घेरा बनाते हैं
और इस घेरे की सुरक्षा में
अपने लिए संतोष की सीढियां 
बनाते जाते हैं

कभी जब छिद्र हो जाता 
इस घेरे की परिधि में
हम घबराते हैं
अपना कुछ 
छिन जाने की पीड़ा में
तिलमिलाते हैं

जाने-अनजाने 
 आवश्यकताओं के हाथ 
हमें बार-बार नचाते हैं 
अब आदत कुछ ऐसी है
सूरज की सीख को
अपना नहीं पाते हैं 



अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
सुबह ३ बज कर १५ मिनट
२८ जून २०१०, सोमवार


Sunday, June 27, 2010

सतत विकसित आकाश


चुनौती जो है
उसे अनदेखा करके
चलते जाना भी 
एक चुनौती है

पलायन शब्द से
पल्ला झाड़ कर
सपने के बुलबुले को
हथेली पर सजाये
अब
जिस मोड़ तक आ पहुंचे हैं
वहां
समय नुकीला है




शाश्वत सपनो की फसल 
धडकनों में उगा कर
इस बार
जब मिला वो
साथ में मिली आश्वस्ति
सत्य के साथ जीने में 
बस डर के खो जाने
का डर है


डर डर के जीते हुए
खुल कर लगाया ही नहीं कभी
अट्टहास
संशय की कंदराओं में
हुआ ही नहीं उजियारी किरणों पर
विश्वास

अब नए सिरे से
जब दिखने लगा है अपने भीतर
सतत विकसित आकाश

सृजनात्मक सलिला में
पा रही है प्राप्य अपना
पूर्णता की प्यास 
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
सुबह ७ बज कर १५ मिनट
रविवार, २७ जून २०१०

 

Saturday, June 26, 2010

टुकड़ा टुकड़ा सच सुहाता हैं



(जब मैंने गिरिराज जी की परिक्रमा में पानी पीया- चित्र अशोक व्यास )

बात सुनने में आसान है
पर हमारे बोध से खिसक जाती है
कि अनंत पर ध्यान देने से ही
सीमाओं के पार देखने की दृष्टि आती है

हम असीम को बस एक कल्पना मानते हैं
सीमाओं के स्थूल घेरे को ही अपना मानते हैं
सूक्ष्म चेतना के स्तर पर भी जाग्रत है जगत
इस बात को योगियों का सपना मानते हैं


सवाल सत्य का जब किसी कन्दरा से 
सर्प की तरह निकल कर आता है

हमें अपनी केंचुली से निकल कर
 अमृतपान करने को उकसाता है

पर अधीरता और असुरक्षा का भाव 
हमसे ये अवसर छीन कर ले जाता है

हम देख ही नहीं पाते कि मन पर
अज्ञात भय का एक छाता है

और उसे पहचानने से इनकार करते हैं
जो हर पग पर भय से छुड़ाता है

इतिहास में लहू के निशान देख कर
भविष्य में भी खूनी असर दिख जाता है

क्या करें, दिन पर दिन, कुछ ऐसा होता है
कि अविश्वास पहले से ज्यादा बढ़ जाता है
हमें अपने कमरे की शोभा बढाने के लिए 
पूरा नहीं बस टुकड़ा-टुकड़ा सच सुहाता हैं

खंडित में खंडित को देखते देखते यूँ होता है
अखंड का अनुभव हमारे लिए लुप्त हो जाता है 

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
सुबह ७ बजे
२६ जून २०१०, शनिवार







Friday, June 25, 2010

सिर्फ अपने लिए जीने में सार नहीं है


 
 
 
 
 
 
 
लहर दर लहर
सागर भेज रहा है सीढियां
चलो, उठो गगन तक जाओ 

हहरा कर
सुना रहा है सन्देश
जो छूट नहीं सकता, उसे अपनाओ 

हवा को कौन देता है 
कभी ऊष्मा, कभी शीत
कौन जगाता है
रुकने-चलने का संगीत

हवा जो कहीं देती नहीं है दिखाई
कभी इतनी सुहाती, जैसे शहनाई 
 
मंगल गान लिए अंतस तक जाती है
पुरखों की आशीषों में नहलाती है
हवा में कभी ऐसे स्पंदन खनकते 
जैसे देवकृपा सी बरस जाती है
 
ये अपने मूल की आश्वस्ति लुटाती 
आत्म वैभव से सम्पन्न बनाती 
शाश्वत का समन्वित सुर लिए बहती 
ये हवा कहाँ से इतना ममत्व पाती?
 
३ 
तब धरती ने कहा
पहले मुझ पर लिखो ना कविता
मैंने धरती का विस्तार देखा
नदी, पर्वत, वृक्ष, लताएँ 
ऋतुओं का श्रृंगार देखा

फल, फूल, पशु, पक्षी
मनुष्य का नित्य व्यापार देखा
कहीं शांति की पताका फहराती
कहीं आतंक और अत्याचार देखा

तब फिर धरती ने उमंग से कहा
 
देख 'रेत' को तो देख
एक एक कण में उर्वरा छुपाई
तब तुमको फसलें मिल पाई

धरती आज मुझसे बतियाने के मूड में थी
मुझे लगा अब फिर प्रदूषण का रोना सुनाएगी
पेड़ों के कटने पर होने वाली व्यथा सुनायेगी
शायद किसी ज्वालामुखी की पीड़ा का मर्म
आज मुझको शिकायत के साथ बतायेगी

पर नहीं, माँ तो मुस्कुरा रही थी

इतनी पीड़ा के बावजूद मुझ पर प्रेम लुटा रही थी
'सुनो, आज तुम्हे एक गोपनीय बात बताती हूँ
सहनशीलता की अनुपम कला तुम्हे सिखाती हूँ'
 
अब मैं चोकन्ना था 
रोम रोम से सुन रहा था
माँ ने मेरे बालों पर हाथ फहराया
फिर कुछ धीरे से बुदबुदाया
मेरी कुछ समझ में नहीं आया
पर माँ ने फिर से दोहराया
 
'जहाँ दीवार है, वहां विस्तार नहीं है
सिर्फ अपने लिए जीने में सार नहीं है
 
चाहे आंधी हो या तूफ़ान 
इस बात पर देना ध्यान
 
जैसे जैसे सेवा भाव से 
दूसरों को अपनाओगे
सहनशक्ति और सम्रद्धि 
अपने भीतर पाओगे 
सुनो, रेत के एक एक कण में
उर्वरा देने वाला है मेरा प्यार
मेरी ये धरोहर सँभालने
कहो कौन हो गया है तैयार
 
धरती माँ ने जब कही ये बात
सोचा था, वो है बस मेरे साथ
पर फिर समझ में आया
माँ ने ये सन्देश सबको सुनाया
पर बिरला ही उसे सुन पाया
और इस बात को जिसने अपनाया
वो ही  प्यार की अक्षय पालकी में
जीवन का अतुलित सौंदर्य देख पाया 


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
सुबह ७ बज कर २० मिनट
शुक्रवार
२५ जून २०१०
 







 
 

Thursday, June 24, 2010

जब जागे तभी सवेरा'


1
एक  ही मन में कितने संसार
एक साथ कई कई धुनों के तार
जब संशय बढाती है ये झंकार
तो गुम जाती है सत्य की पुकार


आज फिर टीस है हार की
आई-गई पालकी प्यार की
अपने आप में गुम थे सब
खोली ही नहीं कुंडी द्वार की


अब भी जाग सकता हूँ ना
उस क्षण 
जब लगा सूरज सर पर है
लोग पहुँच गए होंगे अपने अपने काम पर
सारी दुनिया
उन्ही समस्याओं को सुलझाने में लगी होगी
जो दिन पर दिन बढ़ती जा रही हैं

याद आया
थक कर सो गया था
ना मैं समुद्र में फैलता तेल रोक पाया
ना मैं धरती पर फैलता खून रोक पाया
ना मुझसे 
उतने प्यार की खुशबू निकली
कि हवा से नफरत और अविश्वास हटा पाती


माँ तुम तो सब जानती हो ना
कहते कहते उस क्षण एकबारगी
इस डर ने भी जकड लिया
कहीं सचमुच
नालायक समझ कर
छोड़ तो नहीं गयी माँ
मुझे अकेला सोता छोड़ कर

और तब
खिड़की से पर्दा हटाती
किरणों से भी ज्यादा उजियारा देती मुस्कान फैलाती
माँ ने मेरा भाल चूम कर कहा
'जब जागे तभी सवेरा'

माँ से पूछना चाहता था
कमरे में लबालब भरा प्रेम जो है
क्या इसे लेकर
मैं उनका सामना कर सकूंगा
जिनके हाथ में ज़हरीले भाले हैं

माँ चुप रही

माँ, क्या इस प्रेम को लेकर
मैं उन लोगों तक करूणा पहुचा सकूंगा
जो मुझे खत्म करना चाहते हैं

माँ चुप रही

फिर ढेर सारे संशयग्रस्त सवाल सुन कर
धीरे धीरे अपनी संयत, सुन्दर मुस्कान के साथ
कहा था उस दिन
मेरी माँ ने
'बेटा, तुम्हे प्यार देने के साथ
मैं ये स्वतंत्रता भी देती हूँ 
कि तुम अपने ढंग से इस प्यार से पोषित हो पाओ
और अपनी मौलिकता को लेकर आगे बढ़ते जाओ'


अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका
सुबह ६ बज कर २९ मिनट 
२४ जून २०१०


Wednesday, June 23, 2010

जो देख नहीं पाते अपनी परछाई



हमने ऐसी व्यवस्था बनाई है
जो दुश्मन के मन भाई है
हमारी दावतों में शामिल होकर
उसने अपनी ताकत बढाई है

क्यूं हर बार, दुश्मन का सन्देश
इस तरह हमारे घर-आंगन तक आता है
कि अपने ही लोगो की आँखों में
धुआं सा भर जाता है

क्या बात है, कि हर बार
अधूरी रह जाती है हमारी तैय्यारी
हम उन्हें साथ लिए हैं अपने
जो दुश्मन की करते हैं तरफदारी


युद्धभूमि पर चलते चलते
जो देख नहीं पाते अपनी परछाई
कितना सही है उनका ये दावा 
कि वो हैं सत्य के सिपाही


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
सुबह ६ बज कर ४० मिनट 
जून २२, २०१०, बुधवार

Tuesday, June 22, 2010

वो प्रेम का प्याला लिए चले


उसकी बातों मैं अमृत है
उत्साह बढ़ाती रंगत है
मन में कुछ ऐसा लगता है
जैसे कि साथ में शाश्वत है

२ 

वो प्रेम का प्याला लिए चले 
एक दिव्य दुशाला लिए चले
दिखलाए सब जग अपना है
सम्बन्ध निराला लिए चले


उससे प्रकटे आशा अपार
हो जाता जीवन का संचार
चिर आनंद गान सुनाता है
बहने लगती है सार-धार


वैभवशाली बन जाना है
नूतन लय को अपनाना है
जो गौरव है भारत माँ का
साँसों से उसको गाना है 


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
सुबह ६ बज कर ४० मिनट
मंगलवार, २२ जून २०१०

Monday, June 21, 2010

देख मुझे देख


उसने फिर कहा
देख मुझे देख
एक हूँ मैं एक
मत उलझ रूप में
मत उलझ नाम में
किसी चुनौती के आगे
घुटने मत टेक

देख मुझे देख
जल में, थल में
गगन मंडल मे 

हर स्थल में
सत्य सनातन है
मेरे होने की
मंगल रेख

देख मुझे देख
उन आँखों से
जिनमें जाग्रत
गुरुकृपा से विवेक

खोने पाने की फिक्र छोड़
बन माध्यम 
किये जा 
कर्म सारे नेक 
देख मुझे देख 


अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका 
सुबह ६ बज कर ३५ मिनट 
सोमवार, २१ जून २०१० 


Sunday, June 20, 2010

गणित के परिधि

सम्बन्ध

हर सम्बन्ध में
जाने-अनजाने चलता है 
एक लेन-देन,
एक दिन जब 
 बैठ जाते हैं 
हिसाब लगाने,
हर किसी को लगता है
घाटे में रहा है वो ही,
लाभ में शायद
बस वो रहता है
जो हिसाब नहीं लगाता
क्योंकि
प्यार अनमोल है
गणित के परिधि में नहीं आता


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
सुबह ६ बज कर २४ मिनट
रविवार, जून २०,२०१०

Saturday, June 19, 2010

पथ प्रदर्शक है प्रेम



शायद इस बार
शायद ये रास्ता
हो ऐसा कि
ख़त्म ना हो
गंतव्य तक पहुँचने से पहले
अधूरे रास्ते अपनाते-अपनाते
उभरता जा रहा है
मुझमें जो अधूरापन

उससे निकलने की छटपटाहट को लेकर
आज बैठ गया हूँ एक विशाल वृक्ष के नीचे

छाया मुझे माँ के तरह दुलराती है
जाने कैसे, सब व्यग्रता मिट जाती है
जाग गया है एक नया विश्वास
हो गया नए रास्ते का अहसास

बाहर नहीं, भीतर से चाहिए, रास्ते की पहचान 
आश्वस्ति है समस्या ही सुझाएगी समाधान 
उठ कर वृक्ष को कृतज्ञता से देख मुस्कुराया
इस कालातीत मौन की गहराई को अपनाया

लो, मुझमें 
अपने और संसार के लिए अपार प्रेम उमड़ आया 
पथ प्रदर्शक है प्रेम  
 बिना प्रेम के किसी को सही रास्ता नहीं दिख पाया
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
सुबह ६ बज कर ३० मिनट
१९ जून २०१०











Friday, June 18, 2010

कुदरत का अनूठा खेल


1
कल जहाँ पर्वत था
आज वहां सागर है
और सागर में जल नहीं तेल है
ये सब क्या कुदरत का खेल है?


अब ना ऊँचाई का बुलावा
ना लहरों का संगीत
अब ना जाने किस कोने में
सिसक रही कोमल प्रीत

मुक्ति के दिखावे में भी
जैसे कोई जेल है
ये सब क्या कुदरत का खेल है ?


पेड़ नहीं बसते कहीं और जाकर
मनुष्य छोड़ सकता है अपना कर
कोई व्यथा सुनाता है गा गाकर 
कोई व्यथा पार कर लेता गाकर

शक्ति देती है शुद्ध दृष्टि 
दुर्बल बनाता मिलावट का मेल
संकेत देकर राह सुझाता
कुदरत का अनूठा खेल 


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
सुबह ६:००बजे
शुक्रिवार, जून १८, २०१०





Thursday, June 17, 2010

'देखने की स्वतंत्रता' का जो उपहार



उस दिन जब हम
पहाड़ की चोटी पर बैठे थे
वो मुस्कुरा रहे थे
मौन में प्रेम था 
आश्वस्ति भी
हवा में पूर्णता बज रही थी

क्षितिज तक देख कर
विस्तार को एक घूँट में पी लेने की आतुरता जागी
पर अस्थिरता के भाव को लेकर
मैं उन्ही प्रश्नों की पगडंडियों पर भटकने लगा
जिनसे निकलने के लिए
इस 'महायोगी' की साथ
इतनी ऊँचाई तक पहुंचा था

वो मुझे देख कर मुस्कुराये
जैसे मन की बात समझ गए हों
बोले कुछ नहीं


उनके साथ का मौन
मेरे संशयों और सवालों को लील जाता है
मैं वह हो जाता हूँ
जो मैं अपने को मानता नहीं

चिंतामुक्त, प्रेम के निर्बाध, निश्छल स्वरुप से छलकता सागर
इस क्षण ना कोई कामना
ना कोई याचना
ना किसी से द्वेष
सबके मंगल की कामना
सबके कल्याण की प्रार्थना


मन में किसी सुप्त तरंग ने अंगड़ाई ली
और उनका क्या 
जो तुम्हारे शत्रु हों
जो तुमरे राष्ट्र और संस्कृति को नष्ट करना चाहते हैं

महापुरुष की ओर देखा
'क्या उनके लिए भी प्रेम और क्षमा भाव रखूँ?'
मन ही मन पूछा
मन में ही उत्तर झाँका
'क्या ऐसा मान सकते हो
कि तुमसे अलग कोई नहीं?'
मैं ने तड़प कर कहा
'कैसे मान सकता हूँ,
मैं तो नहीं बारूद बिछा रहा
मैं तो नहीं चला रहा गोलियां?'

४ 
सहसा वो उठ खड़े हुए
चलने की मुद्रा थी
मैंने उनकी चरण पादुकाएं
उठा कर उनके सम्मुख रखीं
उन्होंने मेरे काँधे पर हाथ रखा
मेरी आँखों में झाँका
मैं सिहर सा गया
लगा, वो तो मेरे पार देख रही हैं
मेरा कुछ शेष नहीं है
मैं धुल रहा हूँ
मेरा 'मैं ' घुल रहा है
सीमाओं का सम्बन्ध मुझे छोड़ रहा है
मैं गर्दन झुका कर ये देखना चाहता था
कि क्या मेरे पांवों के नीचे ज़मीन है
पर एक तरह की
रसमय तन्मयता ने मुझे 'अखंड चैतन्य के साथ एकमेक' कर दिया था


चलते हुए मैंने
तुतलाते से स्वर में उनसे कहा
'मुझे लगता है
आपके पास सब समस्यों का समाधान है
पर आप बताते नहीं'
'ऐसा!' वो मुझे देख कर मुस्कुरा भर दिए
बोले कुछ नहीं

मैं सोच रहा था
किसी तरह उनके भीतर उस 'स्थल' तक पहुंचूं 
जहां सारे संशयों का निवारण करने वाली 
पूंजी है
और उसे चुरा कर अपने साथ रख लूं
 ताकि प्रेम के साथ 'संशय मिश्रित सतर्कता' को 
हमेशा साथ
ना रखना पड़े


उन्होंने अचानक
मेरे काँधे पर से हाथ हटाया
यूँ चलने लगे जैसे 
हम एक-दूसरे को जानते ही ना हों

फिर एक स्थान से
डूबते सूरज की ललाई को निहारने के लिए रुके
ऑंखें मूँद ली
मद्धम स्वर में बोले
मुझसे या शायद अपने आप से

"हम प्रकाश कर सकते हैं
आँखें दे सकते हैं
पर 'देखने की स्वतंत्रता' का जो उपहार
हर मनुष्य को दिया गया है
उसे तो वापिस नहीं ले सकते
प्रतिक्रिया के लिए भी 
इस 'मानवीय धरोहर' से खिलवाड़ करने लगे 
तो मनुष्य में पूर्णता की सम्भावना कैसे बचेगी?"


विदा लेने से पहले उन्होंने कहा
"कल तुम अकेले
पहाड़ की चोटी तक जाना
वहां से जो जो दिखे
बाहर और भीतर
मुझे आकर बताना"


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
सुबह ७:०० बजे
गुरुवार, १७ जून २०१०


Wednesday, June 16, 2010

संकल्प रहित होकर

 
तो कहो 
क्या किया अब तक
उस सबमें से
जो किया जाना था
 
पूछ कर अपने आप से
देखता हूँ मन अपना

ना जाने कैसे
आनंद के प्रवाह में
बह जाते हैं
सभी उकेरे हुए संकल्प

ध्वनि एक 
उसके 'होने की'
गूंजती है अनवरत

नाद यह निरंतर
उंडेलता है जो अमृत रस
इसकी अनदेखी कर
क्यूं कहीं और जाना
क्यूं कुछ और पाना
 
सजावट सारी 
इस "अवतरित" में रमने के लिए
जहाँ जहाँ ले जाए
वहां वहां है जाना

आत्मरमण का अवकाश जुटाने
जिस जिस से मिलना हो
उस उस से मिल आना

प्रेम का प्रसाद 
वितरित करने हेतु
उचित पात्र 
कभी ढूंढना, कभी गढ़ना

संकल्प रहित होकर
सारे संकल्प पूरे कर देने
सहज श्रद्धा और उत्साह लेकर बढ़ना

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१६ जून २०१० 
सुबह ६ बज कर ३० मिनट
 
 

Tuesday, June 15, 2010

शाश्वत की गाथा


सारे दिन के क्रिया कलाप
जैसे किसी गीत का आलाप

एक माधुर्य की तैय्यारी 
समन्वय में सृष्टि सारी

हर उतार-चढ़ाव, हर हल-चल में
एक वही है विद्यमान
जैसे जैसे बढ़ता जाता है
इस तरफ अपना ध्यान

कर्म सुन्दर खेल हो जाता है
अच्युत से मन का मेल हो जाता है

जो आता है, उसके वैभव की झलक दिखलाता
यूँ लगता है, खिलती है साँसों में  शाश्वत की गाथा 

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका 
सुबह ६ बज कर ३५ मिनट पर
मंगलवार, १६ जून २०१०


Monday, June 14, 2010

उत्सव है अनवरत

 
नव प्रभात
अपने हाथ
सृजनशील
हर एक बात

किरण किरण
उजियारा 
हर क्षण 
कितना प्यारा

सांस सांस
आस जगाता जाए
मिल मिल कर
प्यास बढाता जाए

जीवन है प्रेम व्रत
उत्सव है अनवरत
 
अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका
सुबह ५ बज कर ५० मिनट
१४ जून २०१०

Sunday, June 13, 2010

सत्य निर्वात नहीं


सत्य निर्वात नहीं
ना ही पतझड़
ना ही बसंत
सत्य
वो है
जिसका नहीं 
हो सकता अंत

सत्य
सृजनशीलता के
कई रूप लेकर आता है
आत्म-सौंदर्य से
समन्वय बनाने का
पाठ पढ़ता है

सत्य
अपार वैभव को
सुलभ करवाता है
और साथ
साथ ये भी बताता है
कि 
सबसे बड़ा कोष वो है
जिसका द्वार 
भीतर से खुल पाता है 


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
सुबह ७ बज कर २५ मिनट
रविवार, जून १३, २०१०

Saturday, June 12, 2010

परिधि से परे



ये दुनिया दिनों दिन
पहचान के फ्रेम को चुनौती देती है

समझ के बाहर
नया कुछ
अच्छा भी, बुरा भी
होता है
दिखता है
कभी पढने में आता है
कभी अनुभव में आता है

जगत उतना ही नहीं
जितना मैंने जाना था

दुनिया का सीमित ज्ञान लेकर
अपनी इस छोटी समझ से
असीम की बात करता हूँ 

जैसे कोई
छोटी सी नौका लेकर
लहरों की सवारी करता
इस आश्वस्ति के साथ
कि
सागर से ही नहीं
किनारे से भी उसका
आत्मीय सम्बन्ध है कोई गहरा

इतना गहरा की
छिछली समझ की परिधि से
परे रह जाता है
हमेशा 


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१२ जून २०१० 
सुबह ८ बज कर २ मिनट

Friday, June 11, 2010

एक झलक विराट की

  
प्रथम चरण 

वही एक पथ
दिन दिन 
नूतन, सुन्दर, मंगल
यहीं बैठ
सुनती है
मधुर नदी की कल-कल 
दूसरा चरण 

एक वह बिंदु
जिसमें से
प्रकट होता है सिन्धु
स्वर्णिम विस्मय
छुपा कर
मौन मगन
मद्धम मुस्कान से
सृजनात्मक स्वर लिए
खिलखिला कर
रचनात्मक विस्तार से
दिखलाता है
एक झलक विराट की


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका

प्रथम खंड- ११ जून २०१०
दूसरा चरण- मई ३०, २०१०

Thursday, June 10, 2010

कोई भी 'दूसरा' नहीं रह जाता है

(पुल हिस्सा है रास्ते का, घर नहीं, क्यूं कर हमको इसकी खबर नहीं- चित्र- अशोक व्यास )

ये कौन है
जो मुझे हर दिन
भीतर से बदल जाता है
शायद वही जो
दिन और रात का
खेल रचाता है 
पर लाख कोशिशों के बावजूद
ये समझ में नहीं
आता है
इस खिलाडी का आखिर
मुझसे क्या नाता है

कभी कभी लगता है
वो मुझे पूरी तरह छोड़ जाता है
कभी यूं, कि
वो मुझे पूरी तरह अपनाता है

कभी मुझमें
कोई गहरा सागर सा नज़र आता है
कभी छोटी सी नदी
से भीतर कोई उफान सा उभर आता है

कभी तो यूं कि बड़ी-बड़ी ख्वाहिशों में
भी छल सा देता है दिखाई
और कभी छोटी सी बात पर भी अता है गुस्सा
हो जाती है किसी से लड़ाई

बाहर देखूं तो
ढेर सारे मोर्चे प्रकट हो जाते हैं
किसी अन्याय, किसी अपमान 
को लेकर आक्रोश जगाते हैं

भीतर देखूं
तो प्रेम, आनंद, शांति का वैभव
छलछलाता है
जिसे लेकर 
किसी और तक पहुंचना मुझे
नहीं आता है
शायद इसलिए कि
जब ये बोध होता है
तब एक होते हैं सब
कोई भी 'दूसरा' नहीं
रह जाता है

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१० जून २०१०, गुरुवार

Wednesday, June 9, 2010

कृतज्ञता की एक कली


विचार
लुप्त सरस्वती नदी से
बुदबुदों की तरह
फूट फूट कर
कभी कभी
बहते हैं
शाश्वत पहचान की नदी लेकर

यह 
आनंद का भीगापन 
यह
तन्मयता की चांदनी
यह
अनिर्वचनीय समन्वय
और
एक अटूट आश्वस्ति
बोध का एक आलोकित बिंदु
जैसे 
फूट रही हों
मुझसे
रश्मियाँ प्रेम की

यह सब
मंगलकारी, अच्छा अच्छा
भला सा
मैंने नहीं किया
सचमुच

पर हुआ है मुझमें
यह
स्निग्ध स्वीकरण
जिससे है
जिसका है
उससे कैसे करूं अनुरोध
कि देखे अपना प्रतिबिम्ब
इन शब्दों में

बस खड़ा हूँ

कृतज्ञता की एक कली लेकर

उस सर्वयापी संवेदना के नाम


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
(२००७)

Monday, June 7, 2010

विस्तार के नाम पर




१ 
अब बंद स्नानघर में
नहाते नहाते
ये सच लगने लगा है
कि
जो नदी में
खुल कर नहाता है
वो स्वच्छ नहीं हो पाता है


प्रकृति से जोड़ते 
अनुभवों को हम अस्थाई खेल
मानने लगे हैं 
सीधे सीधे नहीं
टीवी के द्वारा मौसम को
जानने लगे हैं


विस्तार के नाम पर
हमें अपना घर परिवार ही दिख पाता है
वो शख्स जो
सारे संसार में निश्छल प्रेम लुटाता है
उसका स्वभाव 
अब हमारी समझ में नहीं आता है
ना जाने कैसी प्रगति है
जिससे हर मनुष्य सिमटता जाता है


अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका
सुबह ७ बज कर १७ मिनट
सोमवार, ७ जून २०१०

Sunday, June 6, 2010

असहमति के पहिये से


लो अपनी असहमति के पहिये से
नई गाडी बनाओ
समझ की पटरी पर कुछ ओर
आगे बढ़ जाओ

तुम अब तक अविश्वास करते हो 
क्यूं अपने आप पर
सूरज के सम्मुख निरावरण हो
उज्जवल हो जाओ 

सभा में स्थापित खंडित सत्य से
छटपटाना सहज है
पर इसकी चुभन से, घायल हो 
स्वयं को दुर्बल ना बनाओ

अच्छा तो ये होगा, सत्य के बारे में
अपनी समझ बढाओ
और निर्भयता से प्रखर होकर 
असीम की महिमा गाओ 

अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका
सुबह ९ बज कर २६ मिनट
रविवार, ६ जून २०१०

Saturday, June 5, 2010

आस जेब में धरी है

और भी हैं बातें कई
सत्य की तलाश से पहले
कह कर
सच तक पहुँचने की यात्रा
को स्थगित करता
हूँ हर दिन
फिर भी
ये आस जेब में धरी है कहीं 
कि कहीं से
मेरे चारों ओर
उजाला उंडेल कर
विस्मित कर देगा
सत्य
अपने आप मुझे 

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
सुबह १० बज कर ४५ मिनट
शनिवार, ५ जून 2010

Friday, June 4, 2010

नया हो जाता है संसार


लौटने से पहले
पूछा था उसने
एक बार और
वही सवाल
और
फिर एक बार
मैंने दिया था
वही जवाब

फिर भी
बदल गए थे
हम दोनों


बदलाव
सवालों और जवाबों के बीच
किसी चुपचाप पगडंडी से
चला आता है
अनायास
तब जब हम
कुछ नहीं कर रहे होते जानते बूझते

करवट अनंत की
इस तरह
व्यवस्थित करती है
भीतर से हमें कि 
नया नया हो जाता है संसार

अशोक व्यास
सुबह ४ बज कर ६ मिनट पर
न्यूयार्क, अमेरिका
शुक्रवार, जून ४, 2010

Thursday, June 3, 2010

शांति का कवच


तूफ़ान कहीं भी
किसी भी बात पर
हो सकता है प्रकट,

ज्वालामुखी बन सकती है
किसी एक
याद की करवट,

आओ 
फिर से
शांति का कवच पहने
कर लें 
आलिंगनबद्ध 
सागर को झटपट 
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
सुबह ७ बज कर ३० मिनट
जून ३, २०१०, गुरुवार

Wednesday, June 2, 2010

गहन शांति का अतुलित वैभव


(जब झरना एकाकी गाये,  आत्मसुधा रस स्वर सुन आये  )

है तेरा आभार निरंतर 
हर स्वर में तू छुपा हुआ पर
बिना समन्वय दिख ना पाए
हर एक दर है तेरा ही दर

दुःख-शोक, भय-क्लेश मिटा दे 
सत्य को ढकता वेश मिटा दे
गहन शांति का अतुलित वैभव 
जहाँ खिले है, वहां बिठा दे

अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका
सुबह ७ बज कर २७ मिनट
२ जून २०१०, बुधवार

Tuesday, June 1, 2010

मधुर मौन झंकार जगा दे


(उत्सव संगम का, मधुर प्रवाह के उद्गम का -                    चित्र- अशोक व्यास)


 
जीवन का आधार बता दे
नित्य प्यार का सार बता दे
जिसको विदा नहीं कहना है
मुझको वो संसार बता दे

मधुर मौन झंकार जगा दे
तन्मयता के तार दिखा दे
प्रेम, शांति का अक्षय वैभव
आनंद रस इस बार दिला दे


अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका
मंगलवार, १ जून २०१० 
सुबह ६ बज कर ५५ मिनट

सुंदर मौन की गाथा

   है कुछ बात दिखती नहीं जो  पर करती है असर  ऐसी की जो दीखता है  इसी से होता मुखर  है कुछ बात जिसे बनाने  बैठता दिन -...