धीरे धीरे
लम्बे समय के अभ्यास के बाद
अब
मन के आँगन में
रह ही नहीं गए हैं शेष
कोई कांटे
किसी से कोई शिकायत नहीं है
एक घना संतोष
और इसके साथ एक नाद जो है
भरा भरा सा
ठहरने ही नहीं देता
किसी क्षोभ, किसी कसक, किसी सतही उत्तेजना को
पूर्णता के पथ पर
अग्रसर होने के प्रयास में
धीरे धीरे
बहुत कुछ अप्रासंगिक होने लगा है
मेरे लिए
इस तरह कि असंगता
मुझे उससे तो जोड़े है
जो बदलता नहीं कभी
पर यह सब बदलने वाला जो है
इसके साथ
मेरा सम्बन्ध जो है
लगता है, है ही नहीं
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
सुबह ७ बज कर ५ मिनट
बस अचानक
रेत में हाथ डाल कर
इस बार मैंने
कर ही ली प्रार्थना,
इस बार मैं
नहीं लाया हूँ बीजों का उपहार
दो तुम मुझे
सब कुछ देने वाली धरती
कुछ ऐसा
जो सदा रहे साथ
जिसे लेकर जहाँ जाऊं
तुम्हारे पुत्र के रूप में हो पहचान मेरीरेत में हाथ डाल कर
इस बार मैंने
कर ही ली प्रार्थना,
इस बार मैं
नहीं लाया हूँ बीजों का उपहार
दो तुम मुझे
सब कुछ देने वाली धरती
कुछ ऐसा
जो सदा रहे साथ
जिसे लेकर जहाँ जाऊं
और भी न जाने
क्या कुछ कहता रहा था
सींचते हुए अपने आंसूओं से धरती को
धीरे धीरे पिघल कर बह गया दर्द
न जाने कैसे मेरे भीतर
बहने लगी थी नदी उल्लास की
ना जाने कैसे
यूँ हुआ जैसे मेरा हाथ
पेड़ की जड़ की तरह
लेकर धरती से रहस्यमयी कुछ
भर रहा था मेरी सूक्ष्म चेतना मे
हाथ जब निकाल कर
रेत में से
देखा अपने ही हाथ को
तो बदली बदली लगीं
अपने ही हाथ की रेखाएं
इस बार मेरे हाथ के घेरे मे
सिर्फ़ मै ही नहीं था
मेरा पूरा परिवार था
मेरे मित्र थे
मेरे संगी-साथी
जाने-अनजाने लोग ही नहीं
आकाश भी था, हवा भी थी, आग, पानी, धरती
सब कुछ कैसे दिखाई देने लगे थे मेरे हाथ की रेखाओं मे
अचरज भरी बात थी
पर सहज लग रहा था सब कुछ
चलने पर यूँ लगा जैसे
मैं कभी टूटा ही नहीं था
जैसे कभी रहा ही नहीं मैं एकाकी
और
धमक रहा था मेरे रोम रोम मे
वह भाव जिसे शायद प्यार कहा जा सकता है
ऐसा प्यार जो सिर्फ़ देना जानता है
और नए सिरे से
प्रस्तुत हुआ मैं
अपने आप को संसार को सौप देने के लिए
इस आश्वस्ति के साथ
की मैं वह हूँ
जिसका कभी अंत नहीं होता
अशोक व्यास
अक्टूबर ३०, ०९
4 comments:
गज़ब की प्रस्तुति………………जीव और ब्रह्म का सम्बन्ध क्या है और 'मै' कौन हूँ को बहुत ही खूबसूरती से परिभाषित किया है…………बेहद उम्दा लेखन्।
दोनों ही रचनाएँ बहुत उत्तम...वाह!
आत्मविकास के पथ पर बढ़ने से बहुत सी अनावश्यक चीजें छूटती जाती हैं और हमारा अस्तित्व सुलझता जाता है ।
हाथ जब निकाल कर
रेत में से
देखा अपने ही हाथ को
तो बदली बदली लगीं
अपने ही हाथ की रेखाएं
बहुत सुंदर ......!!
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