विचार
लुप्त सरस्वती नदी से
बुदबुदों की तरह
फूट फूट कर
कभी कभी
बहते हैं
शाश्वत पहचान की नदी लेकर
यह
आनंद का भीगापन
यह
तन्मयता की चांदनी
यह
अनिर्वचनीय समन्वय
और
एक अटूट आश्वस्ति
बोध का एक आलोकित बिंदु
जैसे
फूट रही हों
मुझसे
रश्मियाँ प्रेम की
यह सब
मंगलकारी, अच्छा अच्छा
भला सा
मैंने नहीं किया
सचमुच
पर हुआ है मुझमें
यह
स्निग्ध स्वीकरण
जिससे है
जिसका है
उससे कैसे करूं अनुरोध
कि देखे अपना प्रतिबिम्ब
इन शब्दों में
बस खड़ा हूँ
कृतज्ञता की एक कली लेकर
उस सर्वयापी संवेदना के नाम
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
(२००७)
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