Thursday, June 24, 2010

जब जागे तभी सवेरा'


1
एक  ही मन में कितने संसार
एक साथ कई कई धुनों के तार
जब संशय बढाती है ये झंकार
तो गुम जाती है सत्य की पुकार


आज फिर टीस है हार की
आई-गई पालकी प्यार की
अपने आप में गुम थे सब
खोली ही नहीं कुंडी द्वार की


अब भी जाग सकता हूँ ना
उस क्षण 
जब लगा सूरज सर पर है
लोग पहुँच गए होंगे अपने अपने काम पर
सारी दुनिया
उन्ही समस्याओं को सुलझाने में लगी होगी
जो दिन पर दिन बढ़ती जा रही हैं

याद आया
थक कर सो गया था
ना मैं समुद्र में फैलता तेल रोक पाया
ना मैं धरती पर फैलता खून रोक पाया
ना मुझसे 
उतने प्यार की खुशबू निकली
कि हवा से नफरत और अविश्वास हटा पाती


माँ तुम तो सब जानती हो ना
कहते कहते उस क्षण एकबारगी
इस डर ने भी जकड लिया
कहीं सचमुच
नालायक समझ कर
छोड़ तो नहीं गयी माँ
मुझे अकेला सोता छोड़ कर

और तब
खिड़की से पर्दा हटाती
किरणों से भी ज्यादा उजियारा देती मुस्कान फैलाती
माँ ने मेरा भाल चूम कर कहा
'जब जागे तभी सवेरा'

माँ से पूछना चाहता था
कमरे में लबालब भरा प्रेम जो है
क्या इसे लेकर
मैं उनका सामना कर सकूंगा
जिनके हाथ में ज़हरीले भाले हैं

माँ चुप रही

माँ, क्या इस प्रेम को लेकर
मैं उन लोगों तक करूणा पहुचा सकूंगा
जो मुझे खत्म करना चाहते हैं

माँ चुप रही

फिर ढेर सारे संशयग्रस्त सवाल सुन कर
धीरे धीरे अपनी संयत, सुन्दर मुस्कान के साथ
कहा था उस दिन
मेरी माँ ने
'बेटा, तुम्हे प्यार देने के साथ
मैं ये स्वतंत्रता भी देती हूँ 
कि तुम अपने ढंग से इस प्यार से पोषित हो पाओ
और अपनी मौलिकता को लेकर आगे बढ़ते जाओ'


अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका
सुबह ६ बज कर २९ मिनट 
२४ जून २०१०


2 comments:

कडुवासच said...

... बहुत सुन्दर,बधाई!!!

vandana gupta said...

वाह …………क्या बात है।कायल हो गयी हूँ आपके लेखन की।

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