Sunday, June 27, 2010

सतत विकसित आकाश


चुनौती जो है
उसे अनदेखा करके
चलते जाना भी 
एक चुनौती है

पलायन शब्द से
पल्ला झाड़ कर
सपने के बुलबुले को
हथेली पर सजाये
अब
जिस मोड़ तक आ पहुंचे हैं
वहां
समय नुकीला है




शाश्वत सपनो की फसल 
धडकनों में उगा कर
इस बार
जब मिला वो
साथ में मिली आश्वस्ति
सत्य के साथ जीने में 
बस डर के खो जाने
का डर है


डर डर के जीते हुए
खुल कर लगाया ही नहीं कभी
अट्टहास
संशय की कंदराओं में
हुआ ही नहीं उजियारी किरणों पर
विश्वास

अब नए सिरे से
जब दिखने लगा है अपने भीतर
सतत विकसित आकाश

सृजनात्मक सलिला में
पा रही है प्राप्य अपना
पूर्णता की प्यास 
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
सुबह ७ बज कर १५ मिनट
रविवार, २७ जून २०१०

 

4 comments:

Unknown said...

bahut khub sir
arganikbhagyoday.blogspot.com

कडुवासच said...

....सुन्दर रचना!!!

प्रवीण पाण्डेय said...

सत्य कहा है, चुनौती को अनदेखा करना भी चुनौती है । पलायन करना भी उसी कार्य को आगे जाकर करने का प्रतीक है । समय की चाल घूमकर चलती है, जो उत्पन्न हो, वहीं उसका निपटारा कर दिया जाये ।

vandana gupta said...

सभी रचनायें एक से बढकर एक हैं।

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