चुनौती जो है
उसे अनदेखा करके
चलते जाना भी
एक चुनौती है
पलायन शब्द से
पल्ला झाड़ कर
सपने के बुलबुले को
हथेली पर सजाये
अब
जिस मोड़ तक आ पहुंचे हैं
वहां
समय नुकीला है
२
शाश्वत सपनो की फसल
धडकनों में उगा कर
इस बार
जब मिला वो
साथ में मिली आश्वस्ति
सत्य के साथ जीने में
बस डर के खो जाने
का डर है
३
डर डर के जीते हुए
खुल कर लगाया ही नहीं कभी
अट्टहास
संशय की कंदराओं में
हुआ ही नहीं उजियारी किरणों पर
विश्वास
अब नए सिरे से
जब दिखने लगा है अपने भीतर
सतत विकसित आकाश
सृजनात्मक सलिला में
पा रही है प्राप्य अपना
पूर्णता की प्यास
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
सुबह ७ बज कर १५ मिनट
रविवार, २७ जून २०१०
4 comments:
bahut khub sir
arganikbhagyoday.blogspot.com
....सुन्दर रचना!!!
सत्य कहा है, चुनौती को अनदेखा करना भी चुनौती है । पलायन करना भी उसी कार्य को आगे जाकर करने का प्रतीक है । समय की चाल घूमकर चलती है, जो उत्पन्न हो, वहीं उसका निपटारा कर दिया जाये ।
सभी रचनायें एक से बढकर एक हैं।
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