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(फोटो- डॉ विवेक भारद्वाज) |
अदृश्य होता भीतर का प्रवेश द्वार
किसी छल का होकर शिकार
सिमट जाती है सुनहरी सीढियां
खोखलेपन में गूंजती है पुकार
२
कर लेने सत्य का साक्षात्कार
कोई पथ नहीं सूझता इस बार
मन-आँगन में बिछा अहंकार
दृष्टि कैसे प्रखर हो इस बार
३
दिखावे ने बदल दिया आधार
देखते देखते बदल रहे विचार
फिर ले समर्पण, धैर्य और श्रद्धा
कर लेना है अपना परिष्कार
४
न जाने कैसे, शाश्वत सम्पर्क सो जाता है
अपना ही चेहरा अजनबी हो जाता है
एक छटपटाहट सी सुगबुगाती है
जब मुक्ति का अनुभव कहीं खो जाता है
अशोक व्यास
वर्जिनिया, अमेरिका
शुक्रवार, ३० सितम्बर २०११