फिर बात तुम्हारी करता है
लेकिन वो खुद से डरता है
१
नए सिरे से
अब रिश्ता बनाना है
इस चुप्पी से
जो प्रकट है यूँ तो
मेरी ही प्रार्थना से
पर इतनी शांति में
बिना किसी आवरण के
स्वयं को देखने का
धीरज और साहस
सुलभ नहीं है
शायद इस क्षण
इसीलिए
जाना पहचाना शोर बुला कर
दूर हो रहा
इस चुप्पी से
जिसमें
सृजन सार है
मेरे और सृष्टि के सम्बन्ध का
अब फिर
भटकाव का खेल, खेल
जब लौटूंगा यहाँ
नए सिरे से
करनी होगी प्रार्थना
इस चुप्पी के लिए
जिससे दूर हो रहा
अपनी अधीरता के कारण अभी
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
७ सितम्बर २०११
3 comments:
भटकना...समझना...क्रम चलता रहेगा।
अब फिर
भटकाव का खेल, खेल
जब लौटूंगा यहाँ
नए सिरे से
करनी होगी प्रार्थना
इस चुप्पी के लिए
जिससे दूर हो रहा
अपनी अधीरता के कारण अभी
आपकी नए सिरे से प्रार्थना करने के लिए लौटने
की चाहत ही तो भक्ति है
जो जोड़े रखती है उस असीम 'सत्-चित-आनंद'रुपी चुप्पी से.
जो अधीरता को धीरता में कब कैसे परिवर्तित
कर देती है कि पता ही नहीं चलेता .
यही है ज़िन्दगी का सच्।
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