Wednesday, September 7, 2011

अपनी अधीरता के कारण

फिर बात तुम्हारी करता है
 लेकिन वो खुद से डरता है 






नए सिरे से 
  अब रिश्ता बनाना है
 इस चुप्पी से
    जो प्रकट है यूँ तो
    मेरी ही प्रार्थना से

 पर इतनी शांति में
 बिना किसी आवरण के
स्वयं को देखने का
धीरज और साहस
  सुलभ नहीं है
 शायद इस क्षण

इसीलिए
जाना पहचाना शोर बुला कर
दूर हो रहा 
   इस चुप्पी से
जिसमें
 सृजन सार है 
    मेरे और सृष्टि के सम्बन्ध का


 अब फिर
  भटकाव का खेल, खेल
जब लौटूंगा यहाँ
  नए सिरे से
 करनी होगी प्रार्थना
   इस चुप्पी के लिए
   जिससे दूर हो रहा
 अपनी अधीरता के कारण अभी


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका 
७ सितम्बर २०११  

3 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

भटकना...समझना...क्रम चलता रहेगा।

Rakesh Kumar said...

अब फिर
भटकाव का खेल, खेल
जब लौटूंगा यहाँ
नए सिरे से
करनी होगी प्रार्थना
इस चुप्पी के लिए
जिससे दूर हो रहा
अपनी अधीरता के कारण अभी

आपकी नए सिरे से प्रार्थना करने के लिए लौटने
की चाहत ही तो भक्ति है

जो जोड़े रखती है उस असीम 'सत्-चित-आनंद'रुपी चुप्पी से.

जो अधीरता को धीरता में कब कैसे परिवर्तित
कर देती है कि पता ही नहीं चलेता .

vandana gupta said...

यही है ज़िन्दगी का सच्।

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