(फोटो- डॉ विवेक भारद्वाज) |
(फोटो- विशाल व्यास) |
उसे मालूम है
खुल सकता है अब भी
उस तहखाने का द्वार
जहाँ
'बेचैनी के बादल' हैं
'चिंताओं के घूँघरू' हैं
और
'ऊहा-पोह' के जाल में
अटक कर
सिसकते मन के
ऐसे चित्र हैं
जो छूने मात्र से
हो सकते हैं जीवित
उसे मालूम है
विस्तार के परिचय में
सिर्फ समन्वय ही नहीं
विखंडित कराह का स्वर भी
छुपा है कहीं
पर
अब वो ये भी जानता है
कि वही समा सकता है
उसकी साँसों में
जिसे वो अपना मानता है
और
अपना मानने के जादू को लेकर
नित्यमुक्त अवस्था तक
ले जाने वाली सीढ़ियों को
अब
वो पहचानता है
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२४ सितम्बर २०११
1 comment:
विस्तार में कराह, अद्भुत विचार।
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