Saturday, September 3, 2011

क्रांति की शुरुआत




एक दिन में
कितने उतार-चढ़ाव,
कभी मरहम,
 कभी आकारहीन घाव,
संकट सा
उभर आता उन बातों से
जिनका होता है
जोरदार चाव,



 यूँ सोचा है
  एक दिन
 ऐसा मन बनाऊं,
 जहाँ-जहाँ जाऊं,
तुम्हें देख पाऊँ,
 हर दिशा में 
बस तुम्हारी याद का
उत्सव मनाऊँ




  हो चुकी है
मेरे भीतर
क्रांति की शुरुआत,
अब 
अच्छी लगने लगी
 तुम्हारी हर बात,


  यूँ  भी हुआ
मैं सुन पाया
  सांसों में 
तुम्हारा फुसफुसाना,
 और
 मुखरित हो गया मुझसे
 तुम्हारे अस्तित्त्व का
 तराना

     
  
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
 ३ सितम्बर २०११ 




  एक और शब्द द्वीप


ये अनदेखा करके कि
बीज के मिटे बिना
वृक्ष नहीं देता दिखाई,

बीज को बचाने में ही
 हमने पूरी उम्र बिताई


   मिटने और बनने में
 अभेद वाली बात
  समझ ही नहीं आई
   

    ऐसा भी सोचा है
एक दिन
 तुम्हारी सोच में 
 घुल जाऊं
 संकरी गलियों से निकल 
विस्तृत दिव्य पथ
अपनाऊँ

 - अशोक व्यास

1 comment:

प्रवीण पाण्डेय said...

ईश्वर की याद का उत्सव, अहा।

सुंदर मौन की गाथा

   है कुछ बात दिखती नहीं जो  पर करती है असर  ऐसी की जो दीखता है  इसी से होता मुखर  है कुछ बात जिसे बनाने  बैठता दिन -...