Monday, September 19, 2011

मांगलिक चिन्ह





और फिर
दिन ऐसे आते हैं
जैसे लहर पर बिठा कर
मौजी खिलाता है कोई

एक के बाद दूसरा
दूसरे के बाद तीसरा
दिन पर दिन
मंगल स्फूर्ति का स्वाद चखते
धीरे धीरे
डूबते हुए
अपने आप में
देखते हैं 
वह सब
जो होता है
वह सब
जिससे हमारा होना होता दिखाई देता है

फिर 
एक क्षण
बिना किसी टूटन के
विलग हो जाता है
हमारा संपर्क
इस सारे मेले से

और
अपने आप में परिपूर्ण
गतिविधियों की श्रृंखला को
होते हुए देखते हैं हम
 हमें निमित्त बना कर
खेलता है जो
उसकी झलक पाकर

और अधिक अच्छी लगने लगती है
ये लहरों की मौजी
और
लहर से उतर कर भी
बना रहता है
अंतस मे
उस परम खिलाडी का
         मांगलिक चिन्ह          


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
सोमवार, १८ सितम्बर २०११      

2 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

पवित्र अभिव्यक्ति

Rakesh Kumar said...

और अधिक अच्छी लगने लगती है
ये लहरों की मौजी
और
लहर से उतर कर भी
बना रहता है
अंतस मे
उस परम खिलाडी का
मांगलिक चिन्ह

मौजां ही मौजां
एक बार उसकी लहरों की मौज
ले ली तो लहर उतरने के बाद
पावन अहसास बना ही रहता है.
लोहा पारस को छू गया,तो सोना ही है न.
सोना! पारस के छूने का चिन्ह.

लाली मेरे लाल की जित देखूं तित लाल
लाली देखन मैं गई,मैं भी हो गई लाल.

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