Saturday, March 30, 2013
Tuesday, March 26, 2013
रंगों का गुणगान
१
होली का त्योंहार
यादें भी साथ नहीं इस बार
कोइ भी रंग साथ नहीं रहता यार
एकांत रंगहीन होता है सरकार
२
सत्य का मत डालो अचार
सत्य की किसे है दरकार
घोषित यही करना मेरे यार
आनंद ही आनंद है, इस पार से उस पार
३
क्या पता, सरस्वती माता कृपा लुटाये
जो घोषित करते हो वही सत्य हो जाए
अच्छी अच्छी बात मुहं से निकल कर
अच्छा सोचने का बहाना बन जाए
४
अच्छा बस वही तो नहीं जो सच्चा है
जो कच्चा है, वो भी तो अच्छा है
सत्य की बात में किसको है दिलचस्पी
देखो अखबार में किस मुद्दे की चर्चा है
५
तो बात पीछे छूट गयी होली की
कहाँ तस्वीर भीगी हुयी चोली की
उम्र बीत गयी हंसी-ठिठोली की
जरूरतें ही हो गयी भांग की गोली सी
६
हम नए गीत बनाने से कतराते हैं
हर साल उसी धुन का रंग बरसाते हैं
चूनर वाली के भीगने की मुनादी करके
कुछ बेतरतीब ठुमके लगाते हैं
७
लो साफ़ हो गया आसमान
रंगों ने सब कर दिया आसान
जिसके गाल पर लग गया गुलाल
वो तुरंत हो गया महान
८
कल्पना के रंग संग उड़ान
लो आ गया गोरी का मकान
उसे पुकारने नहीं देता
साथ में आया है अभिमान
९
अब शुरू एक नया अभियान
नए सिरे से रंगों का गुणगान
मिलना जुलना सिखलाते हैं रंग
होली है अपनेपन की मधुर तान
अशोक व्यास
न्यूयार्क अमेरिका
२ मार्च २ ३
Saturday, March 16, 2013
अस्तित्त्व की सामूहिक पहचान
यहाँ अपनी आवाज़ अकेली रह जाने पर
वह सत्य साथ
रहता है
जिससे सब कुछ है
पर
जिसको लेकर
बाज़ार में बैठ कर
चाय पीना
शायद संभव न हो
२
आवाज़ मिला कर
सत्य के स्वर में
प्रतिष्ठा देते हुए
तुम चाहे सत्य के साथ एकमेक न हो
सत्य के पथिकों के लिए
बना हुआ पथ
बिखरने से बचता है
३
अब
बात 'टैक्स' लगने न लगने की नहीं
बात
अस्तित्त्व की सामूहिक पहचान की है
अभी तक तो
हैं
कुछ लोग
जिनकी धमनियों में
धड़क रही है
ऋषियों की आप्त वाणी
हमने सुना, सार विश्व एक कुटुंब है
इसलिए वे हमें एक समुदाय भी नहीं मानते
एकजुट होकर अपनी अस्तित्त्व की पहचान गुंजायमान करने
कोइ भी संस्था अपनी मर्जी से
कर देती है परिभाषा हिन्दू की
कर लेने की समझ के लिए बने
भारत में होकर भी
नहीं जानते
मर्म हिन्दू होने का
गलती किसकी
उनकी
या हमारी
हम जो जानते हैं
महिमा हिंदुत्व की
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
Wednesday, March 13, 2013
ये साँसों की श्रंखला
हर बार
इसी तरह
एक अंदरूनी परत
अनछुई
परे स्पर्श के
रह रह कर
अपने होने का बोध जगाती
समझ से परे होकर भी
ना जाने
किस रास्ते से आकर
समझ पर
छा जाती
२
किस का है हम पर अधिकार
हम हैं कौन आखिरकार
कभी संबंधों में ढूंढते सार
कभी चले जाते संबंधों के पार
३
जीवन एक पहेली
एक यात्रा
सबका साझा
एकदम एकाकी
है क्या आखिर?
ये साँसों की श्रंखला
कभी
फुर्सत के क्षणों में
इस और ध्यान जाता है
या शायद
जब इस तरफ ध्यान जाता है
फुर्सत अपने आप आ जाती है
४
अक्सर
जिसे हम देख-छू पाते हैं
उसे ही
मानते हैं सत्य
और कभी
यह स्पष्ट हो जाता है
की सत्य यदि
हमारे देखने सुनने जानने तक ही
सीमित हो जाता
तो हमारी सीमितता में
सत्य अपनी सत्यता को
खो जाता
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१ मार्च २० १ ३
Tuesday, March 12, 2013
वह जो चले जाते हैं उस पार
वह जो चले जाते हैं उस पार
छोड़ जाते हैं अपने विचार
उनके भाव बरसाते रहते
जीवन की गोपनीय रसधार
वह जो चले जाते हैं उस पार
सुरक्षित रहता है उनका प्यार
ये प्यार 'रिले रेस' की तरह
पीढी दर पीढी, श्रद्धा संचार
वह जो चले गए उस पार
नहीं उनसे संवाद अधिकार
फिर भी बतियाता संसार
पहन कर यादों के हार
क्या जाने, क्या होता है उस पार
देह से परे, क्या है जुड़ाव का सार
मृत्यु जीवन को परिभाषित करती है
या जीवन ही है, जीवन के पार
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
1 मार्च २० १३
Sunday, March 10, 2013
जब छोड़ दिया अपना पहनावा ...
वह
जब जहाँ जैसे भी जिया
उसका हिस्सा
कई कई रूपों में
धडकता रहा
उससे परे
उसकी छाँव में
अपनी स्वतंत्रता सहेजता हुआ
क्योंकि
यही तो चाहता था वह
की उसकी सन्तति
स्व-निर्भर होकर
सृजित करे
संतोष का संगीत
सेवा उसके लिए
सहज विस्तार था
अपने होने का
ना किसी मंच से
अपने इंसान होनी की प्रदर्शनी की उसने
न किसी से
विशेष प्रोत्साहन की आशा ही
उसका जीवन
कितना सामान्य था
यूं तो
पर उसकी सादगी में
छल-छल बहती थी प्रीत
ना जाने
संस्कृति की गहराई का
एक बरगद सा
पनपता गया
अपने आप
उसने ईमानदारी, निष्ठा
और
संवेदना के साथ
श्रम के सधे हुए सोपान चढ़ते चढ़ते
एक दिन
थक कर
जब
छोड़ दिया
अपना पहनावा
बिलख पड़े हम
सिसकियों में
सुनते रहे
सागर की आहटें
लहर ना जाने कैसे
चुपचाप
अपने साथ
ले जाकर लीन कर लेती है
हमें
जिस क्षण
यात्रा का विराम हो जाता है वैसे तो
पर
आत्मीय सौन्दर्य का
विस्तार
सूर्य किरणों के प्रसरण सा
प्रखर आभा के साथ
एकाएक
कितने दिलों में
खिल जाता है
शाश्वत स्फूर्ति की अंगड़ाई लेकर
प्रेरणा शब्दों में नहीं
पांवों में होती है
प्रणाम के साथ
प्रेम और जाने-अनजाने हुई त्रुटियों के लिए क्षमा याचना
और हमारी आपसी पहचान के
एक अनूठे सेतु पर
यह भावयुक्त पुष्प
प्रार्थना के साथ
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१ मार्च २ ३
सहज बने रहने का स्वांग
इस बार
वो डरते डरते
प्रविष्ट हुआ
कविता के गलियारे में
जैसे
स्वयं से बिछुड़ने की पीड़ा
कोइ पाप हो
और उसके साथ में
इस अवगुंठन
का श्राप हो
इस बार
वह
सब से सब कुछ छुपा कर
सहज बने रहने का स्वांग
सजा कर मुख पर
निकल आना चाहता था
सधे हुए कदमो से
सत्य की महिमा से मंडित
इस
गोपनीय गलियारे से
अपने चेहरे पर
समाधान युक्त होने का क्रीम लगाकर
इस बार
वो नहीं चाहता था
सारी जेबें
खंगाल कर
देखना और दिखाना
की
अब भी
कंकर ही जमा हैं
कामनाओं की आहटों में
वही उदास गीत गूँज उठता है
अब भी
उसकी अंगुलियाँ
अपनी जेब में
कोइ सुनहरी सुबह
टटोल टटोल कर
थकी नहीं हैं
पर
कुछ है
जो थक गया है
कुछ है
जो ये सब खेल छोड़ कर भाग जाना चाहता है
अर्थ की और ले जाते कदम
अब थक कर
सुस्ताना चाहते हैं
कह कर
अपना सत्य
उसे मालूम था
कविता की गोद में सर रख कर
रो पड़ेगा वह
और
दिखलाते हुए अनाम अकेलापन
हँसना पड़ेगा उसे भी
अपने आंसूं के साथ
क्योंकि वह
जो दिखाया जाना है
दीखता नहीं
महसूस भर किया जा सकता है
और
कैसे कहे कविता को की
अपनी पीड़ा को महसूस करने वाला इंसान
और कोइ बनाया ही नहीं बनाने वाले ने
सब अपना अपना भुगतते हैं
अपनी अपनी ढफली लेकर अपना अपना राग गाते हैं
अब उसे
यह भी कहना पडा कविता को
की नहीं जान पाया वह
किसी के दर्द को अपनाना
सीख ही नहीं पाया
अपने दर्द से बाहर आना
और
ना जाने यह कैसा दर्द है
जो संभव नहीं
किसी को दिखाना
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१ मार्च २ ३
Saturday, March 9, 2013
दौड़ते दौड़ते
जैसे दौड़ता है नन्हा बच्चा
कमरे में
इधर से उधर
उधर से इधर बेमतलब
बस
उत्सव मनाता
इस बात का
की उसने
चलने के साथ साथ
सीख लिया है
अब
दौड़ लेना भी
और
सीखे हुए का अभ्यास करने की क्रिया पर
मतलब की मांग आरोपित कर देना
सीखा नहीं उसने अब तक
ऐसे ही
लिखता हूँ
शब्दों की अंगुली थाम कर
इस दिशा से उस दिशा तक
उस दिशा से इस दिशा तक
ढूंढते हुए
एक उभयनिष्ठ तारतम्य
किसी अनाम क्षण में
खुल जाती है
मुझ पर
समग्रता सृष्टि की
यूं ही
खेल खेल में
पर
दौड़ जो है यह
अभिव्यक्ति की
अभ्यास मात्र है
अपने होने की क्रिया का
उत्सव मनाते हुए
उमड़ आता है
जो आनंद सहज ही
इसे लेकर बैठ नहीं जाना है
दौड़ना है और
दौड़ते दौड़ते
तुम तक आना है
इस परिपूर्णता के स्पर्श से
हर दिशा को छू जाना है
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
९ मार्च २ ३
Thursday, March 7, 2013
अपने लिए ही निरंतर
करता रहा है
सब कुछ
अपने लिए
वह
सारी उम्र
सारी कवितायेँ अपने लिए
सारे शब्द अपने तक पहुँचने के लिए
सारा दिन अपना सार पाने के लिए
करता रहा है
जो कुछ भी
उसमें करने से अधिक
महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है
होने ने
अपने होने की अनुभूति छूकर
इस आश्वस्ति का उत्सव मनाते हुए
दिखाई देता रहा है
अपने होने का आधार उसे
कभी
किसी जगमग पल में
मिट गया है
करने और न करने का अंतर
अपना होना
क्षण भंगुरता की परिधि लांघ कर
नित्य नूतन शाश्वत का सहचर लगा है उसे
जब जिस पल में
ऐसे पलों के मध्य
एक जाज्वल्यमान स्मृति रेखा सी
बन गयी है
अंतस में
ऐसे की
प्रकट में
जो कुछ औरों के लिए करता है वह
उसमें भी
भाव यही बन आता है की
कर रहा हूँ
सब कुछ
अपने लिए ही
निरंतर
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
७ मार्च २ ३
Wednesday, March 6, 2013
इसमें नया क्या है
इसमें नया क्या है
बस एक नया दिन
और वो ही से काम
जो होते हैं रोज
करते हैं बहुत सारे लोग
यही
बर्तन, कपडे, चाय, दफ्तर
पढना, लिखना
बतियाना
बेमतलब के ईमेल देखना
या सोशियल मीडिया में
ठिठक कर
ऐसे खड़े हो जाना
जैसे कोइ भीड़ भरे चौराहे की रौनक देख ले
इसमें नया क्या है
दिन का दामन पकड़ कर
भाग रही है
घडी की सूई
अपने स्वरूप के
डिजिटल जगत में
लुप्त हो जाने से डरती सी
समय
हर दिन
हमारे साथ
एक नया सम्बन्ध जोड़ता है
यह सेतु
क्षण क्षण नया होता है
हमारी चेतना के साथ
वह छाप जो
छपती है
हमारी संवेदना पर
हमारे लिए नई सी स्मृतियाँ उकेरती हुई
पल पल
सजग सा नया सा कुछ रचती है
और
जब हम इसे देखते देखते
जान जाते हैं
की ये जो प्रकट हो रहा है
हमें लेकर
हमारे लिए
हमारे भीतर
जिसका प्रकटन
अपने से बाहर ही देख-देख
स्वयं से अलग मान बैठे हैं हम
ये प्रकट होने वाला
एक कुछ
सूक्ष्म और सृजनात्मक सौंदर्य का
अद्वितीय निराकार पुंज
अरे
यही तो जीवन है
तब
समय
'दे ताली' के उल्लास के साथ
हमारी ओर बढाता है हाथ
अच्छा लगता है समय को
जब हम सजगता से
देते हैं इसका साथ
और
लेकर अपने साथ अपना मन
बनाते है समय के साथ, अपना जीवन
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
६ मार्च २० १ ३
बुधवार
Tuesday, March 5, 2013
अव्यस्थित होने की शिकायत
व्यवस्थित होने के प्रयास में
वह
लिखता रहा है
कविता और
किसी सूक्ष्म, पावन, उदार,
अपार समन्वित भाव में
भीग कर
भूलता रहा है
अव्यस्थित होने की शिकायत
२
विस्मित सौंदर्य छलकाते
ऐसे ही
किसी अनाम, कोमल क्षण में
लगा है उसे
"जीवन कविता ही तो है
"जीवन कविता ही तो है
और
व्यवस्था जीवन की
होती है उजागर
कविता से ही "
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका ५ मार्च २० १ ३
अपना जीवन आप बनाएं
ये अनिर्णय की कविता है
कभी कभी
ठण्ड में जम जाता है
निर्णय
उठना या न उठना
एक मद्धम सी गर्माहट का घेरा
टूट सकता है
हमारे हिलने से
बोध इसका
बिठाये रखता है
एक मुद्रा में
कुछ ऐसी ही गर्माहट
बन आती है सोच के स्तर पर
जो जैसा है
उसमें से झरती एक उष्णता की
रोक देती है
प्रवाह चिंतन का
जीते-जागते,
जड़ होने का स्वांग भरते
हम
टालते रहते हैं
जाग्रत होने का निर्णय
इस तरह
एक क्षण की संभावित टूटन में
सिमट कर मिट जाती हैं
चुपचाप
ना जाने कितनी संभावनाएं
हम चाहे जितने स्वतंत्र हों
निर्णय यदि लेते नहीं समय पर
समय ही कर देता है निर्धारण
हमारी दशा और दिशा का
लगता है
चाहे जितनी पीड़ा हो
एक क्षण की शल्य चिकित्सा कर
कर ही देना चाहिए निर्णय अपना, अपनी ओर से
वर्ना
यह जो समय है
आरोपित कर ही देगा अपना निर्णय
हम पर
चलो उठ ही जाएँ
अपना जीवन आप बनाएं
जो हमारे हिस्से का काम है
वो समय से क्यूं करवाएं ?
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
५ मार्च २० १ ३
(मंगलवार)
Monday, March 4, 2013
ये जल्दी की कविता है
ये जल्दी की कविता है
हड़बड़ी की कविता है
यहाँ से वहां तक की दूरी
इस अनुभव से उस अनुभव की यात्रा
इस संवाद से उस विवाद और फिर इस संवाद तक
जल्दी जल्दी
निपटा लेना है
चाय पीने-पिलाने का क्रम
अब तय करना है
अपनाते हुए कौन सा रास्ता
गंतव्य तक जाना है
किसके प्रति अपनी रुष्टता को जताना है
बुरा लगने के भाव को कहाँ जाकर फेंक आना है
२
ये जल्दी की कविता है
क्योंकि दिन तो उग जाने वाला है जल्दी से
पर उन्हें ही दिखाई देगा
जिन्होंने खोल ली हों आँखें
कविता में हडबडी है
क्योंकी
कविता जानती है
देर तक यूं ही नहीं रहने वाला सूरज
और यह भी की
जो नहीं उठ पाते जल्दी
जान ही नहीं पाते
सूर्य लालिमा का सौंदर्य
३
ये जल्दी की कविता है
क्योंकि इस बार
छुपा कर नहीं रखना उजाला
न ही छुपे हुए उजाले की अनदेखी करनी है
संगीत सारा
सजा कर
सागर की लहरों पर
लीन कर लेना है
सांसों के सहमे राग को
असीम उल्लास के साथ
४
ये कविता जल्दी की कविता है
प्रतीक्षा अगले जन्म तक नहीं
ना ही इस जन्म के अगले चरण तक
अभी
इसी क्षण समाप्त कर देना है
यह प्रतीक्षा काल
लपक कर पूरी कर लेनी है यह ललक
मुक्त हो जाने की
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
४ मार्च २०१ ३
Sunday, March 3, 2013
समझ की ऊन का गोला
उसने कहा
इसे मेरी प्रार्थना समझो या जरूरत
इसे मेरी याचना समझो
या प्रेम भरा ख़त
बात ये है
जगत निर्माता जी
मेरी समझ की ऊन का गोला
बार बार
खुल जाता जी
मुझे आता नहीं
करना कुछ निर्माण
बतलाओ कैसे
सार्थक हों मेरे प्राण
इस बार
एकाग्रता से
स्वयं को सिद्ध करने का दे ही दें वरदान
वरना
यूं ही
आपके द्वार पर धरना दे बैठ जाऊँगा कृपानिधान
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
३ मार्च २०१३
Saturday, March 2, 2013
गान फूटता जो यह सुन्दर
1
विस्मय सा होता, ना जाने
कौन करे है जग को प्यारा
अंतर्मन से हटा के तमको
दिखलाये कैसे उजियारा
सौंप दिया, चरणों में उसके
अपना 'मैं' सारा का सारा
नित्य सखा शाश्वत है मेरा
शुद्ध प्रेम की अविरल धारा
२
गान फूटता जो यह सुन्दर
करूणा अंकित उसकी इस पर
ज्योतिर्मय का पावन चिंतन
कहे अनकहा अनंत का स्वर
३
दिव्य चेतना का संगीत
पग पग पर है मेरा मीत
कहे उसी की गाथा अनुपम
जड़-चेतन के हर एक रीत
अशोक व्यास
२ मार्च २०१३
न्यूयार्क, अमेरिका
आश्वासन का यह नूतन आलोक
अभी उतर रहा है आसमान से
यह
एक कोमल उजाला
जो,
इसे सहेजने अपने नैनों में
जब देख रहा हूँ ऊपर
छवि तुम्हारी
उंडेल रही है
आश्वासन का यह नूतन आलोक
भीग रहा
मेरा सर्वस्व
इस निर्मल आभा में
जैसे
रोम रोम में
जाग्रत हैं
पंख
अनंत उड़ान के
और
सहज सुलभ है
यह स्पष्टता की
अब
होना है
हर व्यवहार
आदान-प्रदान जीवन का
बस तुम्हारे साथ
हाँ
यही तो माँगा था तुमसे
और
ओ साईं दाता
इतनी शीघ्रता से
दौड़े आये
अपनी अनुकम्पा लुटाने मुझ पर
बैठ कर
इन नन्हे नन्हे शब्दों की पालकी में
इस छोर से
एक होते हैं
मौन और अभिव्यक्ति
क्या इसी तरह
एकमेक हो सकता हूँ
मैं
तुम्हारे साथ बाबा
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२ मार्च २ ३
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सुंदर मौन की गाथा
है कुछ बात दिखती नहीं जो पर करती है असर ऐसी की जो दीखता है इसी से होता मुखर है कुछ बात जिसे बनाने बैठता दिन -...

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