Thursday, March 7, 2013

अपने लिए ही निरंतर

 
करता रहा है 
सब कुछ 
अपने लिए 
वह 
सारी उम्र 

सारी कवितायेँ अपने लिए 
सारे शब्द अपने तक पहुँचने के लिए 
सारा दिन अपना सार पाने के लिए 
करता रहा है 
जो कुछ भी 
उसमें करने से अधिक 
महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है
होने ने 

अपने होने की अनुभूति छूकर 
इस आश्वस्ति का उत्सव मनाते हुए 
दिखाई देता रहा है 
अपने होने का आधार उसे 
कभी 
किसी जगमग पल में 
 
मिट गया है 
करने और न करने का अंतर 
अपना होना 
क्षण भंगुरता की परिधि लांघ कर 
नित्य नूतन शाश्वत का सहचर लगा है उसे 
जब जिस पल में 
 
ऐसे पलों के मध्य 
एक जाज्वल्यमान स्मृति रेखा सी 
बन गयी है 
अंतस में 
 
ऐसे की 
प्रकट में 
जो कुछ औरों के लिए करता है वह 
उसमें भी 
भाव यही बन आता है की 
कर रहा हूँ 
सब कुछ 
अपने लिए ही 
निरंतर 
 
 
अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका 
७ मार्च २ ३  

1 comment:

प्रवीण पाण्डेय said...

सोचने को विवश करती पंक्तियाँ, हम सब भी तो उसी राह चल रहे हैं।

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